Book Title: Sambdohi Times Chandraprabh ka Darshan Sahitya Siddhant evam Vyavahar
Author(s): Shantipriyasagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 4
________________ से मेरा इस जीवन में उनके साथ लगभग सात वर्षों से रहना हो रहा अपना गुरु मानते हैं। उनका कहना है,कोई नदी सागर बनना चाहे तो है। इस दौरान मुझे कभी शब्दकोश नहीं देखना पड़ा क्योंकि वे संभव नहीं है, पर वह किसी को सागर बनाने की ताक़त अपने भीतर चलते-फिरते शब्दकोश जो हैं। मेरे मन के किसी कोने में कभी ___ अवश्यमेव रखती है। सागर कौन बनेगा, इसके बारे में कुछ नहीं किसी शंका ने पाँव नहीं जमाए क्योंकि उन्होंने हर शंका को समझ में __ कहा जा सकता। ठीक वैसे ही श्री चन्द्रप्रभ ने कहने के नाम पर कुछ बदल दिया। मुझे कभी यह महसूस नहीं हुआ कि मैं छोटा वे बड़े बोला हो अथवा लिखने के नाम पर कुछ लिखा हो, मुझे ऐसा नहीं क्योंकि उन्होंने मुझे सदा शिष्य की बजाय संत की दृष्टि से देखा । मुझे लगता। फिर भी उनसे मानवीय कल्याण से जुड़े अनगिनत कार्य हुए उनके साथ कभी बंधन जैसा नहीं लगा क्योंकि वे स्वयं के साथ औरों हैं जिसका समय और हम सब साक्षी हैं। उनके वक्तव्य और किताबों की स्वतंत्रता पसंद करते हैं। मेरे भीतर में कभी उनकी निजी बातें से अब तक कई-कई टूटे घर एक हुए हैं, रिश्तों में मधुरता का रस जानने की ख्वाहिश पैदा न हुई क्योंकि उन्होंने जीवन रूपी डायरी की घुला है, बूढ़े लोग जिंदादिली महसूस करने लगे हैं, युवाओं में कुछ हर बात सामने खोलकर रख दी। मेरे भीतर कभी-भी भौतिक वस्तु कर गुजरने का ज़ज़्बा जगा है, पंथ-मज़हब की संकीर्णता ध्वस्त हुई पाने की तमन्ना न उठी क्योंकि उन्होंने अपने पास रही हर वस्तु मुझे है, यही कारण है कि उन्हें चाहने वालों में जैन, हिन्दू, मुस्लिम, संभालने के लिए दे दी। आज मैं जैसा भी सिक्का हूँ वह उन्हीं की सिक्ख, ईसाई, अमीर-गरीब, शिक्षित-अशिक्षित, बच्चे-बुजुर्ग सभी कृपा का सुफल है। भले ही श्री चन्द्रप्रभ ओसवाल कुल में जन्मे और जैन धर्म में श्री चन्द्रप्रभ को क्या उपमा दूँ, कोई उन्हें प्रवचनकार कहता है संन्यस्त हुए, पर वे यहाँ तक ठहरे नहीं वरन् चलते रहे, चलते रहे तो कोई साहित्यकार, कोई उन्हें कर्मयोगी कहता है तो कोई और इसी का परिणाम है आज वे सबके हैं, सब उनके हैं। कोई संत प्रेमयोगी, कोई धर्म-गुरु कहता है तो कोई उन्हें अध्यात्म-गुरु, कोई जाति और धर्म विशेष के बंधन से ऊपर उठकर प्राणिमात्र का और उन्हें संत कहता है तो कोई बसंत, कोई उन्हें प्रभुश्री कहता है तो कोई जीवंत धर्म का हिमायती कैसे बन सकता है इसके लिए वे हमारे सदा उन्हें गुरुदेवश्री। अब पता नहीं वे क्या हैं? मुझे इतना ज़रूर पता है कि प्रेरणा-स्तंभ बने रहेंगे। वे कुछ-न-कुछ ज़रूर हैं और सच्चाई तो यह है कि वे सब कुछ हैं। मैंने देखा, वे सब में 'प्रभु' को निहारते हैं और सबको 'प्रभु' । उन्होंने परम्परागत कुछ मान्यताओं और धारणाओं को बदला भी तो कहकर बलाते हैं। उनके पास बैठते हैं तो लगता है शांति और कुछ को जोड़ा भी। कुछ को नए अंदाज में पेश किया तो कछ को शीतलता उनसे टपक रही है। उनकी वाणी सनकर तो दिल-दिमाग नया अंदाज देने की प्रेरणा दी। इस कारण कुछ उनसे टूट गए, तो कुछ रोमांचित हो उठता है। वे जादूगर तो नहीं, पर जादूगर से कम नहीं हैं। उनसे रूठ गए, कुछ जुड़ गए तो कुछ जिगर के टुकड़े (कट्टर फ़र्क केवल इतना-सा है कि जादगर प्रभावित करता है और वे समर्थक) बन गए। कुल मिलाकर बहुत कुछ हुआ, पर वे अब भी परिवर्तित करते हैं। इसका प्रमाण मेरे जैसे अनेक साधक हैं और पहले की भाँति सहज,शांत और तृप्त हैं। चाहें तो आप भी प्रमाण बन सकते हैं। श्री चन्द्रप्रभ के प्रवचनों की वीसीडी, सूक्त वचनों के कलैण्डर आपने उनका एकाध प्रवचन तो सुना ही होगा, अथवा उनकी एवं साहित्य को माग दिनोदिन बढ़ती जा रही है। लोगों में न केवल किताबों की कछ पंक्तियाँ तो पढी ही होंगी. नहीं तो ऐसा कछ कर उन्हें सुनने और पढ़ने की ललक जगी है वरन् उन्हें घर-घर फैलाने लीजिएगा फिर आप सब समझ जाएँगे। मैंने उन्हें सना तो संत बन की चाहत भी बढ़ी है। हम भी अगर ऐसा कुछ करना चाहें तो सादर गया, समझा तो जिंदगी में साधना उतर गई और पढ़ा तो पीएच.डी निमत्रण है। कर पाया। आप पता नहीं क्या बनेंगे, पर जीवन का पल-पल लुत्फ अंत में, मैं मेरे जीवन के कुछ विशिष्ट महानुभावों के प्रति उठाना अवश्य सीख जाएँगे। उनके प्रवचन और साहित्य रसहीन अपना आभार अवश्य समर्पित करूँगा जिनमें पिताश्री पोकरदास जी ज़िंदगी को सरस बनाते हैं, भटकती जिंदगी को राह दिखाते हैं और एवं मातुश्री सुआ देवी मालू, मेरे शोध-प्रबंध की निदेशिका जीवन क्या है? मैं कौन हूँ? जैसे प्रश्नों में उलझे दिमाग की बंद आदरणीय डॉ. विमला जी भण्डारी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। डायरी को खोल देते हैं। राष्ट्र-संत महोपाध्याय श्री ललितप्रभ सागर जी महाराज सा. के प्रति श्री चन्द्रप्रभ ने अब तक जो कहा और लिखा है, जीवन का मैं सदैव नतमस्तक हूँ जिनका वरदहस्त मेरे जीवन का सबसे बड़ा शायद ही ऐसा कोई पहलू होगा जो अनछुआ रह गया हो! उन्होंने । संबल है। मैं अपने भाई श्री पवन जी, अशोक जी मालू के प्रति भी आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नरक, बंधन, मोक्ष, शास्त्र, धर्म, कर्म पर उनके विशिष्ट प्रेम का आभारी हूँ। स्व. श्री पन्नालालजी जैन, कम, जीवन पर ज़्यादा बोला और लिखा है। आपको यह जानकर आदणीय कमला जन जाजासा, श्री उम्मेदासह जो भसाला, डा. आश्चर्य होगा कि आज वे जिस स्थिति पर पहँचे हैं उसके पीछे ललिता जी मेहता, सेवामूर्ति बहिन योगिता जी, अरुण जी अरोडा, किसी व्यक्ति, किसी शास्त्र, या किसी धर्म का नहीं, अपितु स्वयं संजय जी गहलोत आदि सभी महानुभाओं की सद्भावनाओं एवं जीवन का हाथ है, जीवन में घटने वाली घटनाओं ने गुरु और शास्त्र के जीवन में घने वाली घटनाओं और शान सहयोग के लिए हृदय से आभार। का काम किया है। वे जीवन-जगत में घटने वाली हर घटना को -मुनि शांतिप्रिय सागर 4» संबोधि टाइम्स Jain Educ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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