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श्री समवसरण प्रकरण.
थुणिमो केवली वच्छं। वर विजाणंद धम्मतित्थं । देवींद नय पयत्थं । तित्थयर समवसरणत्थं ॥१॥ __ भावार्थ-अनंतज्ञान अनंतदर्शन अनंतचारित्र और अनंतवीर्य रूप अभिन्तर लक्ष्मी तथा चौँतिस अतिशय व अष्ट महाप्रतिहार्यरूप बाह्यलक्ष्मी से विभूषीत, समवसरण स्थित धर्मतीर्थंकर धर्मनायक तीर्थंकर भगवान के चरणकमलो में देव देवेन्द्र अर्थात् भवनपति, व्यन्तर ज्योतीषी और वैमानिक देवोंके वृन्द और चौसठ इन्द्रोने अपना उन्नत मस्तक झूका के वन्दन नमस्काररूप भावपूजा तथा पुष्पादि उतम पदार्थो से करी है द्रव्यपूजा अर्थात् देव देवेन्द्र नर नरेन्द्र और विद्याधरों के समूह से परिपूजित ऐसे तीर्थंकर भगवान् को नमस्कार और स्तवना कर मैं भव्य जीवों के हितार्थ समवसरण का संक्षिप्त वर्णन-स्वरूप को कहूंगा। __ पयडिअ समत्थभावो । केवली भावो जिणाण जत्थभावो। . • सोहन्ति सव्वोतहिं । महिमा जोयणमनिलकुमारा ॥ २ ॥
भावार्थतीर्थंकर भगवान् अपने कैवल्यज्ञान कैवल्यदर्शन द्वारा संपूर्ण लोकालोक के सकल पदार्थ को प्रगट हस्तामल की मांफीक जाना देखा है उन तीर्थंकरों की विभूतिरूप समवसरण