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समवसरण स्थित परिषदा. हो कर नैरूत्य कौन में, पूर्वोक्त तीनों देव परिषदा पश्चिम दरवाजे से. प्रवेश हो कर बायू कौन में और वैमानिक देव नर व नारी एवं तीन परिषदा उत्तर दरवाजे से प्रवेश हो कर के ईशान कौन में स्थित रह कर के व्याख्यान सुने, पर यह ख्याल में रहे कि मनुष्यों में अल्पऋद्धी महाऋद्धी का विचार अवश्य रहता है। अर्थात् वह परिषदा स्वयं प्रज्ञावान है कि वह अपनी २ योग्यतानुसार स्थानपर बैठ जाते हैं, परन्तु समवसरणमें राग द्वेष इर्षा मान अपमान लेश मात्र भी नहीं रहता है । बिअन्तो तिरि ईसाणि । देव छंदाअ जाण तियन्ते । तह चउरंसे दुदु वावि । कोणाश्रो वावि इक्कि का ॥१८॥
भावार्थ -दूसरे स्वर्ण के प्रकोट में तिर्यञ्च अर्थात् सिंहव्याघ्रादि, तथा हंस सारसादि पक्षी जाति वैरभाव रहित, शान्त चित से जिन देशना सुनते हैं। तथा वह इशान कौन में देवरचित देव छंद है । जब तीर्थंकर पहिले पहर में अपनी देशना समाप्त करने के बाद उत्तर के दरवाजे से उस देवछन्दे में पधारते हैं, तब दूसरे पहर में राजादि रचित सिंहासन पर बिराज के तथा पाद पीठ पर विराजमान हो गणधर महाराज देशना देते हैं।
तीसरे प्रकोट में हस्ती अश्व सुखपाल जाण रथ वगैरह सवारियों रखी जाती हैं, चौरस समवसरण में दो २ और वृतुल में एकेक सुन्दर वापियों ( वावडियों ) हुआ करती है, जिसमें स्वछ और निर्मल जल है।