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समवसरण प्रकरणा.
चउ देवि समणि उठ ठिा । निविट्ठा नरित्थिसुरसमणा । इअपण सग परिसासुणंति । देसणा पढम वप्पंतो ॥ १६ ॥ - भावार्थ-पूर्वोक्त बारह परिषदा से चार प्रकार की देवांगना और साध्वी एवं पांच परिषदा खड़ी रह कर और शेष चार देवता नर नारी और साधु एवं सात परिषदा बैठ कर धर्मदेशना सुने । यह बारह परिषदा सब से पहिले, जो रत्नों का प्रकोट है, उस के अन्दर रह कर धर्मदेशना सुनते हैं ।
इअावस्सय वीति वुतं । चुन्नियपुणमुणि निविठा। विमाणित्र समणी दो । उढुसेसा ठिाउ नव ॥ १७ ॥.
भावार्थ-पूर्वोक्त वर्णन आवश्यक वृति का है। फिर चूर्णीकारों का मत है कि मुनि परिषदा समवसरण में बैठ कर के तथा वैमानिक देवी और साध्वी खडी रह कर व्याख्यान सुनती हैं। और शेष नव परिषदा अनिश्चितपने अर्थात् बैठ कर या खडी रह कर भी तीर्थंकरों की धर्मदेशना सुन सके । तथा आवश्यक नियुक्तिकारों का विशेष मत है कि पूर्व सन्मुख तीर्थकर बिराजते हैं। उन के चरणकमलों के पास अग्निकौन में मुख्य गणधर बैठते हैं और सामान्य केवली जिन तीर्थ प्रत्ये नमस्कार कर गणधरों के पीछे बैठते हैं उन के पीछे मनःपर्यवज्ञानी उन के पीछे वैमानिक देवी, और उन के बाद साध्वियों बैठती हैं । और साधु साध्वियों और वैमानिक देवियों एवं तीन परिषदा, पूर्व के दरवाजे से प्रवेश हो कर के, अग्निकौन में बैठे । भवनपति व्यन्तर व ज्योतीषियों की देवियों एवं तीन परिषदा दक्षिण दरवाजे से प्रवेश