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समवसरण प्रकरण.
लहरे खाती हुई सपरवार से प्रवृत्त सुन्दर ध्वजा, छत्र, चमर मकरध्वज और अष्टमङ्गलिक यानी स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्दावृत, वर्द्धमान, भद्रासन, कुंभ, कलस, मच्छयुगल, और दर्पण एवं अष्ट मंगलिक तथा सुन्दर मनोहर विलास संयुक्त पूतलियों पुष्पों की सुगंधित मालायें, वेदिका और प्रधान कलस मणिमय तोरण; वह भी अनेक प्रकार के चित्रों से सुशोभित है और कृष्णागार धूप घटीए करके सम्पूर्ण मण्डल सुगन्धीमय होते है यह सब उत्तम सामग्री व्यन्तर देवताओंकी बनाई हुई होती है।
जोयण सहस दण्डा । चउ ज्जया धम्म माण गय सीहं । कुकुभई जुया सव्वं । माण मिण निय निय करेणं ॥१३॥
भावार्थ-एक हजार योजन के उत्तंग दंड और अनेक लघु ध्वजा पताकाओं से माण्डत महेन्द्र ध्वज जिस के नाम धर्म ध्वज, माणं ध्वज, गज ध्वज, और सींह ध्वज गगन के तलाको उलंघती हुई प्रत्येक दरवाजे स्थित रहै । कुंकुमादि शुभ और सुगन्धी पदार्थों के भी ढेर लगे हुए रहते है। विशेष समझने का यही है कि जो मान कहा है, वह सब आत्म अङ्गुल अर्थात् जिस जिस तीर्थंकरो का शासन हो उन के हाथों से ही समझना।
पविसित्र पूबाई पहु । पया हिणे पुव्व आसन निविठो ! पय पीठ ठवित्र पाऊ । पणमिअ तित्थं कहइ धम्मं ॥१४।।
भावार्थ-समवसरण के पूर्व दरवाजे से तीर्थकर भगवान समवसरण में प्रवेश करते हैं, प्रदिक्षणा पूर्वक पादपीठ पर पाँव