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समवसरण प्रकरण.
रहता है । कारण ५००० । ५०००। १०००० एवं वीस हजार सोपान हैं प्रत्येक एक २ हाथ के ऊंचे होने से ५००० धनुष का ढाई कोस होता है। जिण तणु बार गणुच्चो । समहिअ जोपण पिहु आसोग तरू । तय होइ देवच्छंदो । चउ सिंहासण सपय पिढें ॥ १० ॥
भावार्थ--अब अशोक वृक्ष का वर्णन करते हैं। वर्तमान तिथंकरों के शरीर से बारह गुणा और साधिक योजन का लम्बा पहुला जिस अशोक वृक्ष की सघन शीतल और सुगंधित छाया है तथा फल फूल पत्रादि लक्ष्मी से सुशोभित है। पूर्वोक्त अशोक वृक्ष के नीचे बडा ही मनोहर रत्नमय एक देव छंदा है, उसपर चारों दिशा में सपाद पीठ चार रत्नमय सिंहासन हुआ करते हैं । तदुवारि चउ छत तया । पडिरूवतिगंतहअ अठ चमरधरा । पुराओ कणय कुसेसय । ठिअफालिह धम्मचक चहु ॥ ११ ॥ - भावार्थ--उन चारों सिंहासन अर्थात् प्रत्येक सिंहासन पर तीन २ छत्र हुआ करते हैं, पूर्व सन्मुख सिंहासन पर त्रैलोक्य नाथ तीर्थंकर भगवान बिराजते हैं, शेष दक्षिण, पश्चिम, और उत्तर दिशा में देवता तीर्थंकरों के प्रतिविम्ब (जिन प्रतिमा) बिराजमान करते हैं । कारण चारों और रही हुई परिषदा अपने २ दिल में यही समझती हैं कि भगवान हमारी ओर ही बिराजमान है; अर्थात् किसीको भी निराश होना नहीं पड़ता है। इस बात के लिए जैनों के किसी भी फिरके का मतभेद नहीं है । सब