Book Title: Samavsaran Prakaran
Author(s): Gyansundar Muni
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala

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Page 30
________________ समवसरण के दखाजे. ૨૭ लोग मानते हैं कि भगवान चतुर्मुखी अर्थात् पूर्व सन्मुख आप खुद बिराजते हैं । शेष तीन दिशाओं में देवता, भगवान के प्रतिबिम्ब अर्थात् जिन प्रतिमा स्थापन करते है और वह चतुर्विध संघ को वन्दनिक पूजनिक है, जब भगवान के मौजूदगी में जिनप्रतिमा की इतनी जरूरत थी तब गैर मौजूदगी में जिन प्रतिमा की कितनी आवश्यकता हैं, वह पाठकगण स्वयं विचार कर सक्ते हैं । कितनेक अज्ञ लोग बिचारे भद्रिक जीवों को बहका देते हैं कि मंदिर मूर्तियों बारह काली में बनी है, उन को भी सोचना चाहिए कि जब तीर्थंकर अनादि है; तब मूर्तीपूजा भी अनादि स्वयं सिद्ध होती है । कितनेक अज्ञ भक्त यहां तक भी बोल उठते हैं कि यह तो भगवान का अतिशय था कि वे-चार मुखवाले दिखाई देते थे, उन महानुभावों को इस पुस्तक के अन्दर जो तीर्थंकरो के ३४ अतिशय बतलाये गए हैं उनको पढना चाहिए कि उस में यह अतिशय है या नहीं ? तो आपको साफ ज्ञात हो जायगा कि यह अतिशय नहीं है पर देवताओं के विराजमान किए हुए प्रतिबिम्ब अर्थात् जिन प्रतिमा है वह जिन तुल्य है; जितना लाभ, भाव जिन की सेवा उपासना से होता है उतना ही उनके प्रतिबिम्ब से होता है। जय छत्त मयर मंगलं । पंचालि दम वेई वर कलसे । पई दारं मणि तोरण। तिय धुव घडी कुणंति वणा ॥१२॥ .. भावार्थ-समवसरण के प्रत्येक दरवाजे पर आकाश में

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