Book Title: Samavsaran Prakaran
Author(s): Gyansundar Muni
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala

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Page 25
________________ १२ समवसरण प्रकरण. (१) अभिंतर का प्रकोट रत्नों का होता है, उस पर मणि के कांगरे, और वैमानिक देव उस की रचना करते हैं। (२) मध्य का प्रकोट सुवर्ण का होता है, उस पर रत्नों के कोसी से ( कांगरे ) और ज्योतिषी देव उस की रचना करते हैं। (३) बाहिर का प्रकोट चांदी का होता है, उस पर सोने के कांगरे, और उस की रचना भुवनपति देव करते हैं। . इन तीनों प्रकोटों की सुन्दर रचना देवता अपनी वैक्रयलब्धि और दिव्य चातुर्य द्वारा इस कदर करते है कि जिस की विभूती एक अलौकिक ही होती है, उस अलौकिकता को सिवाय केवली के वर्णन करनेकों असमर्थ है। वटॅमि बतीसंगुल । तीतिस धणु पिहूल पण सय धणुच्च । छ धणुसय इग कोसं । तग्य रयण मय चऊ दारा ॥ ५ ॥ भावार्थ-समवसरण की रचना दो प्रकार की होती है । (१) वृत-गोलाकार ( २ ) चौरांस-जिस में वृताकार समवसरण का प्रमाण कहते हैं कि समवसरण की भीते ३३ धनुष ३२ अंगूल की मूल में पहूली है, ऐसी छ भीते हैं पूर्वोक्त प्रमाण से गिनती करने से दो सौ धनुष होती है । और वह प्रत्येक भीत ५०० धनुष ऊंची होती है।

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