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तीन गढ की रचना.
" तिलुक्क महिया ” अर्थात् तीर्थंकर भगवान तीन लोक में पुष्पादिसे पूजित हैं। और उववाई सूत्र में कोणिक राजाने भगवान के
आगमन समय चम्पा नगरी को शृंगारी उस समय चारों और सुगन्धी जल से सिंचन कर पुष्पों के ढेर और फूलों की मालाओं से नगरी सुशोभित करवादी थी, वहांपर तो आप किसी प्रकार से वैक्रिय शक्ती द्वारा या अचित्त कह भी नहीं सक्ते इत्यादि । सूत्रों के मूल पाठ से यह ही सिद्ध होता है कि समवसरण में जल, थल से पैदा हुए पुष्पों की रचना होती है वह पुष्प सचित है और ऐसा ही मानना मोक्षाभिलाषी जीवों को हितकारी है।
व्यन्तर देव अपनी दिव्य वैक्रिय शक्ती द्वारा मणि-चन्द्रकान्तादि रत्न-इन्द्र नीलादि अर्थात् पांच प्रकार के मणि रत्नों से एक योजन भूमि मण्डल में चित्र विचित्र प्रकार से भूमि पिठीका की रचना करते हैं।
अभिंतर मज्ज बहि । ति बप्प मणि रयण कणय कबीसीसा । रयणज्जुण रुथ मया । विपाणिय जोई भवण कया ।
भावार्थ-पूर्वोक्त पांच प्रकार के मणि रत्नों से चित्र विचित्र मण्डित, जो एक योजन भूमिका है उसपर देवता समवसरण की दिव्य रचना करते हैं। जैसे-अभीतर, मध्य, और बाहिर एवं तीन गढ अर्थात् प्रकोट बना के उनकी भींतों (दिवारों) पर सुन्दर मनोहर कोसी से ( कांगरों ) की रचना करते हैं । जैसे कि