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समणसुतं ६४-६५. नाणरसावरणिज्जं, सणावरणं
तहा। वेयणिज्जं तहा मोहं, आउकम्मं तहेव य॥९॥ नामकम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य । एवमेयाइं कम्माइं, अठेव उ समासओ ॥१०॥ ज्ञानस्याव गीय, दर्शनावरण तथा । वेदनीय तथा मोहम्, आयु कर्म तथैव च ॥९॥ नामकर्म च गोत्र च, अन्तराय तथैव च ।
एवमेतानि कर्माणि, अप्टैव तु समासत ।।१०।। ६६. पड-पडिहार-सि-मज्ज, हड-चित्त-कुलाल-भंडगारीणं ।
जह एएसि भावा, कम्माण वि जाण तह भावा ॥११॥ पट प्रतिहारासि-मद्य, हडि-चित्र-कुलाल-भाण्डागारिणाम् । यथा एतेषा भावा., कर्मणाम् अपि जानीहि तथा भावान् ॥११॥
७. मिथ्यात्वसूत्र ६७. हा ! जह मोहियमइणा, सुग्गइमग्गं अजाणमाणेणं ।
भीमे भवकतारे, सचिरं भमियं भयकरम्मि ॥१॥ हा । यथा मोहितमतिना, सुगतिमार्गमजानता ।
भीमे भवकान्तारे, सचिर भ्रान्त भयकरे ॥१॥ ६८. मिच्छतं वेदंतो जीवो, विवरीयदंसणो होइ ।
ण य धम्मं रोचेदि हु, महुरं पि रसं जहा चरिदो ॥२॥ मिथ्यात्वं वेदयन् जीवो, विपरीतदर्शनो भवति ।
न च धर्म रोचते हि, मधुर रस यथा ज्वरित. ॥२॥ स्पष्टीकरण : १ जैसे परदा कमरे के भीतर की वस्तु का ज्ञान नही होने देता वैसे ही ज्ञानावरण-कर्म ज्ञान को रोक्ने या अल्पाधिक करने मे निमित्त है। इसके उदय की हीनाधिकता के कारण कोई विशिष्टज्ञानी और कोई अल्पज्ञानी होता है । २ जैसे द्वारपाल दर्शनार्थियो को राजदर्शन आदि से रोकता है, वैसे ही दर्शन का आवरण करनेवाला दर्शनावरण-कर्म है। ३ जैसे तलवार की धार पर लगा मधु चाटने से मधुर स्वाद अवश्य आता है, फिर भी जीभ के कट जाने का असह्य दुख भी होता है, वैसे ही वेदनीय-कम सुख-दु ख का निमित्त है। ४ जैसे मद्यपान से मनुष्य मदहोश हो जाता है--सुध-बुध खो बैठता है, वैसे ही मोहनीय-कर्म के उदय से विवश जीव
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