Book Title: Saman suttam
Author(s): Kailashchandra Shastri, Nathmalmuni
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 285
________________ २६२ समणसुत्तं आरम्भ-प्राणियो को दुख पहुँचानेवाली उत्पाद-द्रव्य की नित्य नवीन पर्यायों की हिसायुक्त प्रवृत्ति (४१२-४१४) उत्पत्ति (६६६-६६७) आर्जव-निम्छलता तथा सरलता (९१) उत्पादन-दोष-गृहस्थो को उनके इच्छानुसार आर्तध्यान-इष्टवियोग, अनिष्टसयोग तथा विद्या, सिद्धि या चिकित्सा आदि का वेदना आदि के कारण उत्पन्न हो नाला उपाय बताने से प्राप्त होनेवाली सदोष दुख व खेदयुक्त मन स्थिति (३२८) मिक्षा (४०५) आलोचना-सरलभाव से अपने दोषों का उत्सर्ग-ज्ञानादि कार्य की सफलता का सर्वथा आत्मनिन्दनपूर्वक प्रकटीकरण (४६१- निर्दोष अति कर्कशमार्ग जिसमें साधु किसी भी प्रकार का परिग्रह ग्रहण नहीं आवश्यक-साधु के द्वारा नित्य करणीय करता (४४) प्रतिक्रमण आदि छ कर्त्तव्य' (६१८- उद्गम-दोष-अपने निमित्त से तैयार किया ६२०, ६२४) गया भोजन या भिक्षा ग्रहण करना आसन-ध्यान तथा तप आदि के लिए साधु सदोष (४०५) के बैठने अथवा खड़े होने की विधि। उदुम्बर-ऊमर, बड, पीपल, गूलर तथा पल्यकासन (४८९) वीरासन (४५२) पाकर घे अग्राह्य पाँच फल जिनमे छोटेआदि के भेद से अनेक प्रकार के। छोटे जीवो की बहुलता होती है (३०२) आस्रव-मन वचन काय की प्रवत्ति के उपगूहन-सम्यग्दर्शन का एक अग, अपने द्वारा शुभाशुभ कर्मो का आगमन गुणो को तथा दूसरो के दोपो को प्रकट (६०१-६०४) न करना (२३९) आस्रव-अनुप्रेक्षा-वैराग्य-वद्धि के लिए मोह- उपधि-शक्ति की हीनतावश निर्ग्रन्थ साधु के द्वारा ग्रहण किये जानेवाले आहार जन्य भावो को तथा मन वचन काय की प्रवृत्तियो की हेयता का चिन्तवन __ आदि कुछ निर्दोष तथा शास्त्रसम्मत (५२२) पदार्थ (३७७-३७८) आस्रवद्वार-कर्मागमन के मूल कारण उपभोग-पुन पुन भोगे जाने योग्य वस्त्रामिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग लकार आदि पदार्थ या विषय (३२३) उपयोग-आत्मा का चैतन्यानुविधायी ज्ञानइन्द्रिय-ज्ञान के पाँच करण-स्पर्शन, रसना, दर्शन युक्त परिणाम (६४९) घ्राण, नेत्र तथा श्रोत्र (४७) उपवंहण-धार्मिक भावनाओ के द्वारा इहलोक-मनुष्य या तिर्यक् जगत् (१२७) ____ आत्मिक शक्तियो की अभिवृद्धि (२३८) ईर्या-समिति-गमनागमन विषयक यतना- उपशम-क्षमाभाव (१३६) चार (३९६) उपशमक-कपायो का उपशमन करनेवाला उच्चार-समिति-दे० प्रतिष्ठापना समिति साधक (५५५) उत्तमार्थकाल-सलेखनायुक्त मरणकाल उपशमन-ध्यान-चिन्तन आदि के द्वारा (५७८) __ कषायो को प्रशान्त करना (५५७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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