Book Title: Saman suttam
Author(s): Kailashchandra Shastri, Nathmalmuni
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 297
________________ २७४ समणसुत्तं वाच्यार्थ को ग्ररण करनेवाला शब्द- संस्तर-मलेवनाधारी साध के लिए झाडलिगज ज्ञान । (६७८) बहारकर तैयार की गयी निर्जन्तु भूमि पड-१ जाश्यन्तर तप, आवश्यक, अथवा घास का विछौना (५७६) ३ जीव काय, ४ द्रव्य, ५ बाह्यतम, संस्थान-गरीर तथा अन्य पुद्गल-स्कन्धो ६ लेण्या, ७ स्कन्ध ये सव छह- के विविध आकार (१८३, ६५३) संहनन-देस्थित अस्थियो के न या कमसंग-देहसहित समस्त वाह्याभ्यन्तर परि- जोर बन्धन तथा जोड आदि । यह छह ग्रह (३६३, १४३-१४८) प्रकार का है (१८३) संग्रहनय-लोक स्थित समस्त जड-चेतन सप्त-१ तत्त्व, २ नय, ३ भग, ४ भय, द्रव्यो में अस्तित्व सामान्य की अपेक्षा ५ व्यसन, ६ समुद्घात सव सातएकत्व की, अथवा प्रत्येक जाति के सान है। अनेक द्रव्यो म उस जाति की अपेक्षा समता-सग्व-दुख छात्र-मित्र आदि द्वन्द्वो मे एकत्व की दृष्टि (७०४) यमान रहनेवाला वीतरागियो का मोह संघ-रत्नत्रय आदि अनेक गुणो से युक्त क्षोभ विहीन परिणाम (२७९, ३४९, श्रमणो का समुदाय (सूत्र ३) । २७४) सज्ञा-दन्द्रिय ज्ञान (६७७) अथवा आहार समभिरुढ-नय-तीन गव्द नयो में से भय मैथुन निद्रा परिग्रह आदि की द्वितीय, जो प्रथम नय के द्वारा स्वीकृत वासनाएं। समान लिग आदिवाले एकार्थवाची संयम-व्रत समिति आदि का पालन, मन, शब्दो में भी अर्थभेद मानता है वचन, काय का नियन्त्रण, इन्द्रिय-जय, (७११) और कपाय निग्रह आदि सब भाव । समय--आत्मा (२६), धर्म पथ या मत (१०१) (सून १०) सरम्भ-कार्य करने की प्रयत्नशीलता समयसार-- दिवाल्पो से अतीत आत्मा (४१२-४१८) क गुद्ध स्वभाव (२१४) (दे० शुद्ध संबर-सम्बनबादि द्वारा नवीन कर्मो का भाव) __ आगमन रोकना (६०-६०८) समाधि-अन्ना का निर्विकल्प ध्यान संदेग-धर्म के प्रति अनुराग (७७) (८२६) अथवा शास्त्राध्यान में संशय-मिथ्यात्व-तन्धो के रकस्म में गा है त मानता (१०८) ___ या रोपा के ना देर में रहना (५४९) सायन-ार्य प्रारम्भ करने के लिए संसार-न्म- म रपनगरण (५:--', ४) मा. ना (८६३-४९८) ससार-अनक्ष-गग्य-वदि के लिए समिति-ना का प्रति (३८: ससार ने जम-मरण मा देवते गए ८८) (विशेप दे० सूत्र २६) इससे मस्त होने की भावना का पुन रामबहाना आदि के निति रो, देह पुन. चिन्तवन (५८) __. ति आमा के कुछ प्रदेशो का देश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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