________________ 276 समणसुत्त स्कन्ध-दो या अधिक परमाणुओ के सयोग स्यात्-'ऐसा ही है', ऐसे एकान्त हट का से उत्पन्न, द्वयणक आदि छह प्रकार निषेध करके 'कञ्चित् ऐसा भी है' के सूक्ष्म-स्थूल भौतिक तत्त्व (660- इस प्रकार का समन्वय स्थापित करने६६१, 648-650) वाला एक निपात (715) स्त्री-तीन प्रकार की--मनष्यणी, तिर्य- स्याद्वाद--'स्यात्' पदयुक्त वावय द्वारा, चिनी और देवी (374) वस्तु के जटिल स्वरूप का विवेचक स्थापना-निक्षेप-किसी पुरुष या पदार्थ के हा समन्वयकारी न्याय (सूत्र 40) चित्र को, प्रतिमा को अथवा किसी स्व-द्रव्य-शुद्ध-आत्मा (587) पदार्थ में कल्पित आकार को 'यह वही हैं स्व-समय-शुद्ध आत्मा में ही अपनत्व का है' ऐसा मानकर विनय आदि रूप द्रष्टा सम्यग्दृष्टि स्व-समय है (271), व्यवहार करना (740) / स्व-मत (23, 735), परस्पर विरोधी मतो का युक्तिपूर्ण समन्वय, स्थावर-पृथिवी, अप, तेज, वायु और साधक का निप्पक्ष भाव (726) वनस्पति इन पाँच कायोवाले एकेन्द्रिय __ स्वाध्याय-शास्त्राध्ययनरूप तप, जो पाँच जीव (650) प्रकार का है (475) स्थितिकरण-किसी कारणवश अधर्ममार्ग हिसा-जीव-वध या प्राणातिपात व्यवहारमें प्रवृत्त हो जाने पर अपने को या या हिसा है (389) और रागादि की साधर्मी बन्धु को विवेकपूर्वक धर्ममार्ग में उत्पत्ति (153) अथवा अयतनाचारपुन आरूढ़ करना (240-241) रूप प्रमाद (157) निश्चय हिसा है। स्नग्ध-परमाणु का आकर्षण गुण जो हिंसादान-प्राणि-पीडावारी या वधकारी विकर्षण का योग पाकर बन्ध का हेतु उपकरण (कस्सी, कुदाली, चूहेदानी हो जाता है (652) आदि) का लेन-देन (321) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org