Book Title: Saman suttam
Author(s): Kailashchandra Shastri, Nathmalmuni
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 289
________________ २६६ समणसुत्तं ७. नैगम, ८ नय, ९ बल, १०. भुवन, द्रव्य-कर्म-जीव के रागादि भावो का निमित्त ११. मूढता, १२. योग, १३ लोक, पाकर उसके साथ बन्च को प्राप्त १४. वेद, १५ शब्दनय, १६. शल्य, हो जानेवाला सूक्ष्म पुद्गलस्कन्ध १७. सामायिक, १८. स्त्री, ये सब (६२, ६५४-६५५) तीन-तीन है। द्रव्य-निक्षेप-आगामी परिणाम की योग्यता त्रीन्द्रिय-स्पर्शन, रसना, घ्राण इन तीन रखनेवाले किसी पदार्थ को वर्तमान में इन्द्रियोवाले चीटी आदि जीव (६५०) ही वैसा कह देना, जैसे राजपुत्र को दण्ड-मन वचन काय (१०१) राजा कहना (७४१-७४२) दमन-ज्ञान ध्यान व तप द्वारा इन्द्रिय- द्रव्य-प्रतिक्रमण-प्रतिक्रमणपाठ का उच्चाविषयों तथा कपायों का निरोध रण मात्र (४२२, ४३२) (१२७, १३१) द्रव्य-लिंग-साधु का बाह्य वेश या चिह्न दर्शन-ज्ञान के विषयभूत पदार्थ का निरा- (३६०-३६२) कार तथा निर्विकल्प प्रतिभास करने- द्रव्य-हिंसा-प्राणि-बध (३८९-३९०) वाली चेतनाशक्ति (३६) द्रव्याथिकनय-पर्यायो को दृष्टि से ओझल दर्शनावरण-जीव के दर्शन-गुण को आवृत करके द्रव्य को सदा अनुत्पन्न तथा अथवा मन्द करनेवाला कर्म (६६) अविनष्ट देखनेवाली दृष्टि (६९४दश-बाह्य परिग्रह तथा धर्म दस-दस है । ६९७) दान्त-इन्द्रियो तथा कषायो को दमन द्वन्द्व-इष्ट-अनिष्ट, दुख-सुख, जन्म-मरण, करनेवाला (१२७) संयोग-वियोग आदि परस्पर-विरोधी दिग्वत-परिग्रह-परिमाणव्रत की रक्षार्थ । युगल भाव (१०५) व्यापार-क्षेत्र को सीमित रखने में __ द्वादश-तप तथा श्रावक-व्रत १२-१२ है । __ सहायक गुणव्रत (३१९) द्विपद-स्त्री, कुटुम्ब आदि (१४४) दुर्गति-नरक व तिर्यञ्च गतियाँ (५८७) दुर्नय-विरोधी धर्म की अपेक्षा को ग्रहण न द्वीन्द्रिय जीव-स्पर्शन और रसना इन दो करनेवाली केवल अपना पक्ष पकड़ने ___ इन्द्रियोवाले केचुआ जोक आदि जीव (६५०) वाली दृष्टि (७२५) देशव्रत या देशावकाशिकव्रत-देश-देशान्तर द्वेष-अनिष्ट या अरुचिकर पदार्थों के प्रति में गमनागमन या व्यापार-सबधी अप्रीति का भाव (सूत्र ८) मर्यादारूप व्रत अथवा जिस देश में धर्म-जीव के निज-स्वभाव या तत्त्वरूप जाने से व्रतभग होने का भय हो वहाँ सम्यग्दर्शन आदि, अहिसा आदि, क्षमा जाने का त्याग (३२०) आदि अथवा समता आदि भाव (८३, द्रव्य-गुणो और पर्यायो का आश्रयभतपदार्थ २७४, सूत्र १५) (६६१) जो जीव पुद्गल आदि के भेद धर्म-अनुप्रेक्षा-वैराग्य-वृद्धि के लिए जन्मसे छह है (६२४) जरामरणरूप इस दुखमय संसार मे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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