Book Title: Saman suttam
Author(s): Kailashchandra Shastri, Nathmalmuni
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 284
________________ पारिभाषिक शब्दकोश २६१ अविरति-हिसा आदि पाँच पापो में विपिन अहिंसा-प्राणि-बध न करना व्यवहार का अभाव (६०८) अहिमा है (१४८) और राग-द्वेप न अशरण-अनप्रेक्षा-वैराग्य-वद्धि के लिए न- हाना (१५१) अथवा यतनाचारकुटुम्बादि की अगरणता का चिन्तवन अप्रमाद (१५७) निश्चय अहिसा है । तथा धर्म की शरण में जाने की भावना आकाश-सर्व द्रव्यो को अवकाश देनेवाला (५०९-५१०) सर्वगत अमूर्त द्रव्य, जो लोक और अशुचि-अनुप्रेक्षा-वैराग्य-वृद्धि के लिए अलोक दो भागो मे विभक्त है देह की अशुचिता का बार-बार चिन्तवन (५२१) आकिचन्य-नि सगता या अकिचनवृत्तिअशुभ-भाव-तीव्र कपाय (५९८) नितान्त अपरिग्रहवृत्ति । दस धर्मों में से अशभ-लेश्या-कृष्ण आदि तीन कपाययक्त नौवाँ (१०५-११०) तीन वृत्तियाँ (५३४) आगम-पूर्वापर-विरोध-रहित जैनग्रन्थ, वीतरागवाणी (२०) अष्ट-१. कर्म, २ सिद्धो के गुण, ३ प्रवचन आगम-निक्षेप-विचारणीय पदार्थ विषयक माता तथा ४ मद ये सब आठ-आठ है। शास्त्र का ज्ञाता पुरुप भी कदाचित् उसी असंख्यप्रदेश-आकाश अनन्त है जिसके माय नाम से जाना जाता है, जैसे मशीनरी लोक-भाग केवल अमख्यातप्रदेश प्रमाण का ज्ञाता मैकेनिक (७८१-७४४) है। धर्म तथा अधर्म द्रव्य भी इतने ही परिमाणवाले है। जीवद्रव्य नी आचार्य-स्वमत तथा परमत के ज्ञाता परमार्थत इतना ही बडा है, परन्तु देह __ मघनायक साधु (९, १७६) में सकुचित होने से यह पनि आत्मा-व्यक्ति का निजत्व (१२१-१२८) अव्यक्त है । उसकी केवल-समुद्धात अथवा उसका ज्ञान-दर्शन-प्रधान चेतन अवस्था ही ऐसी है कि एक क्षण तथा अमूर्त अन्तस्तत्त्व (१८५) लिए वह फैलकर लोक-प्रमाण हो जाना (सूत्र १५) है (६४६) आदान-निक्षेपण समिति-वस्तुओ को उठानेअस्तिकाय-जीव आदि छहो द्रव्य अग्निव धरने में विवेक-यतनाचार (४१०) युक्त है, परन्तु प्रदेश प्रचययुक्त होन न आधाकर्म-चक्की चूल्हा आदि के अधिक कायवान् केवल पाँच है । परमागबन् आरम्भ द्वारा तैयार किया गया हिसासमय मात्र एकप्रदेशी होने के कारण युक्त भोजन (४०९) कालद्रव्य कायवान् नही है (१०९, आभिनिबोधिक-ज्ञान-इन्द्रियाभिमुख विपयो का ग्रहण । मतिज्ञान का दूसरा अस्तेय-बिना दिये कोई वस्तु ग्रहण न बन्न नाम (६७७) का भाव या व्रत (३१३, ३७०-३-१) आयकर्म-आत्मा को शरीर में रोक रखनेअहंकार-देह में 'म'-पन का भाव (३.८) वाला कर्म (६६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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