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ज्योतिर्मुख
१४३-१४४. परिग्रह दो प्रकार का है--आभ्यन्तर और बाह्य । आभ्यन्तर परिग्रह चौदह प्रकार का है :
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१. मिथ्यात्व २ स्त्रीवेद, ३ पुरुषवेद, ४ नपुंसकवेद, ५. हास्य, ६. रति, ७ अरति शोक ९. भय, १० जुगुप्सा, ११. क्रोध, १२. मान, १३. माया, १४. लोभ ।
बाह्य परिग्रह दस प्रकार का है :
१. खेत, २. मकान, ३ धन-धान्य, ४. वस्त्र, ५. भाण्ड, ६. दासदासी, ७. पशु, ८. यान ९ शय्या, १०. आसन ।
१४५. सम्पूर्ण ग्रन्थ (परिग्रह) से मुक्त, शीतीभूत, प्रसन्नचित्त श्रमण जैसा मुक्तिसुख पाता है वैसा सुख चक्रवर्ती को भी नही मिलता ।
१४६. जैसे हाथी को वश में रखने के लिए अकुश होता है और नगर की रक्षा के लिए खाई होती है, वैसे ही इन्द्रिय-निवारण के लिए परिग्रह का त्याग ( कहा गया ) है । असगत्व ( परिग्रह - त्याग ) से इन्द्रियाँ वश में होती है ।
१२. अहिंसासूत्र
१४७. ज्ञानी होने का सार यही है कि ( वह) किसी भी प्राणी की हिसा न करे । इतना जानना ही पर्याप्त है कि अहिंसामूलक समता ही धर्म है अथवा यही अहिसा का विज्ञान है ।
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१४८. सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नही । इसलिए प्राणवध को भयानक जानकर निर्ग्रन्थ उसका वर्जन करते है ।
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