Book Title: Saman suttam
Author(s): Kailashchandra Shastri, Nathmalmuni
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 199
________________ १७६ समणसुतं ५५८. होंति अणियट्टिणो ते, पडिसमयं जेसिमेव कपरिणामा । विमलयरझाणहुयवह-सिहाहिं गिद्दड्ढकम्मवणा ॥१३॥ भवन्ति अनिवर्तिनस्ते, प्रतिसमय येषामेकपरिणामा । विमलतरध्यानहुतवह-शिखाभिर्निर्दग्धकर्मवना ॥ १३॥ ५५९. कोसुंभो जिह राओ, अब्भंतरदो य सुहुमरत्तो य । एवं सुहुमसराओ, सुहुमकसाओ त्ति णायच्वो ॥१४॥ कौसुम्भः यथा राग, अभ्यन्तरतः च सूक्ष्मरक्तः च । एवं सूक्ष्मसराफ, सूक्ष्मकषाय इति ज्ञातव्य ॥ १४ ॥ ५५०. सकदकफलजलं वा, सरए सरवाणियं व सयलोव संत मोहो, उवसंत कसायओ कतकफलयुतजल वा, शरदि सर. पानीयम् इव सकलोपशान्तमोह, उपशान्तक पायतो ५६१. णिस्सेसखीणमोहो, खोणकसाओ निर्मलकम् । भवति ॥ १५ ॥ फलिहामलभायणदय- समचित्तो । भण्णइ, णिग्गंथो वीयराएहिं ॥ १६॥ नि शेषक्षीणमोह, स्फटिकामल-भाजनोदक-समचित्तः । क्षीणकषायो भण्यते, निर्ग्रन्थो वीतरागे ॥१६॥ ५६२-५६३. केवलणाणदिवायर-किरणकलाव-प्पणासि अण्णाणो 1 णिम्मलयं । Jain Education International होदि ॥ १५ ॥ ॥१७॥ णव केवललधुग्गम- पावियपरमप्यववएसो असहायणाणदंसण-सहिओ वि हु केवली हु जोएण । जुत्तो त्ति सजोइजिणो, अणाइणिहणारिसे वृत्तो ॥ १८ ॥ केवलज्ञानदिवाकर-किरणकलाप-प्रणाशिताज्ञानः । नवकेवललब्ध्युद्गम-प्रापितपरमात्मव्यपदेश. ॥१७॥ असहायज्ञानदर्शन- सहितोऽपि हि केवली हि योगेन । युवत इति सयोगिजिन, अनादिनिधन आर्पे उक्त ||१८|| ५६४. सेलेसि संपत्तो, रुिद्धणिस्सेस-आसओ जोवो | कम्मरयविप्पम्वको, गयजोगो केवली शैलेशी सप्राप्त', निरुद्धनि शेषास्रवो जीवः । होइ ॥ १९ ॥ कर्म रजविप्रमुक्तो, गतयोगः केवली भवति ॥ १९॥ For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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