________________
मोक्ष-मार्ग
१८३ आदि प्रमादी का उतना अनिष्ट नहीं करते, जितना अनिष्ट समाधिकाल मे मन में रहे हुए माया, मिथ्यात्व व निदान शल्य करते है। इससे बोधि की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है तथा
संसार का अन्त नहीं होता। ५७९. अत. अभिमान-रहित साधक पुनर्जन्मरूपी लता के मूल अर्थात्
मिथ्यादर्शनशल्य, मायाशल्य व निदानशल्य को अन्तरंग से निकाल फेकते है।
५८०. इस ससार मे जो जीव मिथ्यादर्शन में अनुरक्त होकर निदान
पूर्वक तथा प्रगाढ़ कृष्णलेश्यासहित मरण को प्राप्त होते है, उनके लिए बोधि-लाभ दुर्लभ है ।
५८१. जो जीव सम्यग्दर्शन के अनुरागी होकर, निदान-रहित तथा ___ शुक्ललेश्यापूर्वक मरण को प्राप्त होते है, उनके लिए बोधि
की प्राप्ति सुलभ होती है ।
५८२. (इसलिए मरण-काल मे रत्नत्रय की सिद्धि या सम्प्राप्ति के
अभिलाषी साधक को चाहिए कि वह ) पहले से ही निरन्तर परिकर्म अर्थात् सम्यक्त्वादि का अनुष्ठान या आराधना करता रहे, क्योंकि परिकर्म या अभ्यास करते रहनेवाले की आराधना सुख
पूर्वक होती है। ५८३-५८४. राजकुल मे उत्पन्न राजपुत्र नित्य समुचित शस्त्राभ्यास करता
रहता है तो उसमे दक्षता आ जाती है और वह युद्ध में विजय प्राप्त करने में समर्थ होता है। इसी प्रकार जो समभावी साधु नित्य ध्यानाभ्यास करता है, उसका चित्त वश मे हो जाता है और मरणकाल मे ध्यान करने में समर्थ हो जाता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org