Book Title: Saman Diksha Ek Parichay
Author(s): Sanmatishree Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 12
________________ समण दीक्षा : एक परिचय ११ समय इसका कोई आकार-प्रकार न था। मात्र एक धुंधली-सी रेखा थी। उस रेखा को मानचित्र का रूप देने के लिए बहुश्रुत साधु-साध्वी समुदाय आचार्य श्री के उपपात में बैठा। चिन्तन की नई नीति प्रस्तुत करते हुए गुरुदेव ने कहा-बौद्ध दीक्षा की भांति हमारे यहां भी एक ऐसी दीक्षा आविष्कृत हो, जिसमें व्यक्ति कुछ समय के लिए दीक्षित होकर साधना और शिक्षा का अभ्यास करे तथा प्रचार-प्रसार में अपना योगदान दे। इससे नैतिक शिक्षा की अभिवृद्धि होगी तथा विदेशों तक जैनधर्म के सिद्धान्तों की बात पहुंचेगी।' गुरुदेव का स्वप्न संकल्प बना। समय बीतता गया। संकल्प की सम्पूर्ति को अनुकूल वातावरण न मिला पर पुरुषार्थ ने कभी हार न मानी। दीर्घ एवं सतत् प्रयत्न से आखिर वह दिन आ ही गया जिसका सबको इन्तजार था। सन् १९८० का लाडनूं चातुर्मास । आचार्य श्री ने नए उजाले का इतिहास गढने के लिए पुनः अपना संकल्प उद्घोषित किया। भाद्र शुक्ला पूर्णिमा के दिन दीक्षा महोत्सव था। इस अवसर पर भावी रहस्य का उद्घाटन करते हुए गुरुदेव श्री ने कहा-कार्तिक शुक्ला द्वितीया के दिन दीक्षा महोत्सव होगा, विलक्षण दीक्षा महोत्सव । इस उद्घोषणा ने तेरापंथ समाज में भारी ऊहापोह पैदा कर दिया। विलक्षण शब्द की मनगढन्त व्याख्याएं होने लगी। अनेक प्रतिक्रियात्मक प्रश्न वातावरण में उछलने लगे-यह विलक्षण दीक्षा क्या होगी? क्या आज तक सामान्य दीक्षा ही होती थी? क्या उनको विदेश भेजा जाएगा? भारत के सारे लोग प्रबुद्ध हो गए, जो इन्हें विदेश जाने की आवश्यकता महसूस हुई? भारत के कोने-कोने में यह बात हवा की तरह फैल गई। जिज्ञासाएं उभरती गईं। समाधान पाने पत्र आने लगे। पर समाधान दे कौन? सब कार्तिक शुक्ला द्वितीया की प्रतीक्षा में थे। विलक्षण दीक्षा की घोषणा से पूर्व उस श्रेणी के अनुशासन, व्यवस्था, आचार-संहिता, दिनचर्या, संरक्षण आदि के प्रारूपों पर घण्टों चिन्तन किया गया। परिवारिक जन भी इस नई नीति से उद्वेलित थे यह जानते हुए भी कि तेरापंथ की दीक्षा कोई टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी नहीं सीधा राजमार्ग है। कहीं अंधेरा नहीं, दिन का प्रकाश है। कुछ अभिभावकों ने विरोध भी किया क्योंकि उनके सामने नये मूल्य प्रस्थापन के लिए नींव डाली जा रही थी जिससे वे अनजान थे। अपने ही चिन्तन के चक्रव्यूह में उलझ-उलझकर वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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