Book Title: Saman Diksha Ek Parichay Author(s): Sanmatishree Samni Publisher: Jain Vishva BharatiPage 39
________________ ३८ समण दीक्षा : एक परिचय श्रावक समाज व जैन समाज की प्रतिलेखना करना। __ बीसवीं सदी अणुअस्त्रों, विश्वयुद्धों, तनावों, आत्महत्याओं और चैतसिक विक्षिप्तताओं की सदी रही है । महावीर द्वारा दिए गए-अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के सिद्धान्तों में विश्व की इन सब समस्याओं का समाधान निहित है पर आज ये सिद्धान्त केवल कर्णप्रिय रह गए हैं। जीवन-व्यवहार से इनका कोई संबंध नहीं रह गया है। गणाधिपति तुलसी ने इन सिद्धान्तों को जीवनगत बनाने की दृष्टि से अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान और जीवनविज्ञान-ये तीन अभियान चलाए। समणसमणीवृन्द देश-विदेश की यात्राएं कर, जन-जन को इनसे परिचित कराने का प्रयत्न कर रहा है। तेरापंथी श्रावक समाज पूरे भारत में-महानगरों से लेकर छोटे-छोटे गांवों तक फैला हुआ है। इन सब स्थानों पर साधु-साध्वी जा नहीं सकते। लम्बे समय तक यदि वहां बसने वाले श्रावकों की संभाल न की जाए तो वे अपने संस्कार सुरक्षित नहीं रख पाते। ऐसे स्थानों पर समण-समणी सहजतया पहुंच जाते हैं। क्षेत्रीय विस्तार सन् १६६०, योगक्षेम वर्ष के पश्चात् समणश्रेणी में लम्बी यात्राएं प्रारम्भ हुईं। इससे पूर्व यात्राओं का कोई व्यवस्थित क्रम नहीं था। पर्युषण पर्व के अवसर पर जहां-जहां चातुर्मास नहीं होता, समणीजी के वर्ग जाते। वे एक, दो महीने की यात्रा कर लौट आते। इसी प्रकार शिविर आदि अन्य कोई प्रसंग आता, यात्राएं होतीं। पर यात्राओं का व्यवस्थित रूप योगक्षेम वर्ष के बाद से प्रारम्भ हुआ। विगत सात वर्षों से समण-समणी के वर्ग क्षेत्रीय यात्राओं पर जाते हैं। छह/सात/दस महीने का समय वहां बिताते हैं। उस क्षेत्र के गांवों-शहरों में बसे श्रावक समाज की संभाल करते हैं और क्षेत्रीय रिपोर्ट पूज्य गुरुदेव व आचार्य प्रवर के श्री चरणों में प्रस्तुत करते हैं। अब तक इस श्रेणी के द्वारा भारत के अनेक राज्यों की यात्राएं हो चुकी हैं-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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