Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 4
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 24
________________ १८ हैं तो हमें यह भी मानना होगा कि उत्तराध्ययन का संकलन उसके पूर्व हो चुका था और यह सम्भव है कि उसके संकलनकर्त्ता भी वे स्वयं हों, क्योंकि जिस प्रकार उन्होंने छंद सूत्रों की रचना कर उन पर नियुक्ति लिखीं उसी प्रकार उन्होंने उत्तराध्ययन का संकलन करके उस पर नियुक्ति लिखी हो । यद्यपि उन्हें नियुक्ति का कर्ता मानना विवादास्पद है । दूसरे यदि नियुक्ति के कर्ता के रूप में गौतमगोत्रीय आर्यभद्र अथवा अन्य विद्वानों के मतानुसार भद्रबाहु (द्वितीय) को माना जाये तो भी यह मानने में कोई बाधा नहीं है कि उत्तराध्ययन के संकलन कर्ता पाइण्ण गोत्रीय आर्य भद्रबाहु रहे हों । उत्तराध्ययन सूत्र के इकतीसवें अध्ययन की सत्रहवीं गाथा में दशादि के छब्बीस अध्ययनों का उल्लेख है अतः उत्तराध्ययन के संकलन को इन छेद सूत्रों से परवर्ती मानना होगा इन छेद सूत्रों के रचयिता स्वयं प्राच्य गोत्रीय भद्रबाहु स्वयं ही हैं अतः सम्भव है कि उन्होंने इन छेद सूत्रों की रचना के बाद उत्तराध्ययन का संकलन किया हो। अत: इससे उत्तराध्ययन के संकलन कर्ता भद्रबाहु प्रथम को मानने में कोई बाधा नहीं आती है। इन छेद सूत्रों इस प्रकार यह निश्चित है दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहारके कर्ता भद्रबाहु (प्रथम) हैं। साथ ही निशीथ सहित आचार चूला के कर्ता भी वे हैंयह सम्भावना प्रकट की गई है जो निराधार नहीं है। इसी प्रकार उनके उत्तराध्ययन सूत्र के संकलनकर्ता होने की सम्भावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है । किन्तु नियुक्तियों के कर्त्ता, आर्य भद्रबाहु प्रथम हैं - यह विवादास्पद है । यदि निर्युक्तियों के कर्ता आर्य भद्रबाहु प्रथम नहीं हैं तो कौन है ? इस प्रश्न पर मैंने अलग से एक स्वतन्त्र निबन्ध में विचार किया है, जो Aspects of Jainology, Vol. 6, डॉ० सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ में प्रकाशित है। अतः इस निबन्ध को यहीं विराम देते हैं । सन्दर्भ १. 2. आचार्य हस्तिमल जी, जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग- २, जयपुर (राज.), १९७४ ई०, पृ० ३२७. -} the author of the Niryukties Bhadrabahu is indentified by the Jainas with the patriarch of that name, who died 170 A.V. There can be no doubt that they are mistaken, For the account of the seven schisms (ninhaga) in the Avaśyaka Niryukti, VIII 56-100, must have been written between 584 and 609 of the Vira era. There are the dates of the 7th and 8th schims of which only the former is mentioned in the Niryukti. It is therefore certain that the Niryukti was composed before 8th schism 609. A.V. Parisistaparva Introductory, p. 6. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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