Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 4
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 126
________________ ११९ (उपासकदशांग)३१ अम्बशालवन, (निरयावलि)३२ काममहावन,(अन्तकृतद्वशांग)३३ और तिंदुक (उत्तराध्ययननियुक्ति)३४ नामक उद्यानों एवं वनखण्डों के उल्लेख हैं। औपपातिकसूत्र से गंगा के किनारे बसने वाले अनेक प्रकार के तापसों की सूचना हमें उपलब्ध होती है-विस्तर भय से यहाँ उन सबका उल्लेख आवश्यक नहीं है किन्तु इससे उस युग की धार्मिक स्थिति का पता चल जाता है। ३५ जैनगमों से हमें वाराणसी का शिव की नगरी के रूप में कहीं उल्लेख नहीं मिलता है- मात्र १४वीं शताब्दी में विविधतीर्थकल्प में इसका उल्लेख है, जबकि यहाँ यक्षपूजा के प्रचलन के प्राचीन उल्लेख मिलते हैं। उत्तराध्ययननियुक्ति में वाराणसी के उत्तर-पूर्व दिशा में तिंदुक उद्यान में गण्डी यक्ष के यक्षायतन का उल्लेख है। यही यक्ष हरिकेशिबल नामक चाण्डाल जाति के जैन श्रमण पर प्रसन्न हुआ था। उत्तराध्ययनसूत्र (ईसा-पूर्व) और उसकी नियुक्ति में यह कथा विस्तार से दी गई है। हरिकेशिबल मुनि भिक्षार्थ यज्ञमण्डप में जाते हैं, चाण्डाल जाति के होने के कारण मुनि को यज्ञमण्डप से भिक्षा नहीं दी जाती है और उन्हें वहाँ से मारकर निकाला जाता है। यक्ष कुपित होता है। सभी क्षमा माँगते हैं। हरिकेशि सच्चे यज्ञ का स्वरूप स्पष्ट करते हैं आदि।३६ प्रस्तुत कथा से यह निष्कर्ष अवश्य निकलता है कि यक्ष-पूजा का श्रमण परम्परा में उतना विरोध नहीं था जितना कि हिंसक यज्ञों के प्रति था। उत्तराध्ययन की यज्ञ की यह नवीन आध्यात्मिक परिभाषा हमें महाभारत में मिलती है। हो सकता है कि हरिकेशि के इसी घटना के कारण वाराणसी का यह गण्डीयक्ष हरिकेशि यक्ष के नाम से जाना जाने लगा हो। मत्स्यपुराण में हरिकेशि यक्ष की कथा वर्णित है जिसमें उसे सात्विकवृत्ति का और तपस्वी बताया गया है किन्तु उसे शिवभक्त के रूप में दर्शित किया गया है।३७ उत्तराध्ययन की कथा मत्स्यपुराण की अपेक्षा प्राचीन है। कथा का स्रोत एक है और उसे अपने-अपने धर्मों में रूपान्तरित किया गया है। यक्ष पूजा के प्रसंग की चर्चा करते हुए डॉ० मोतीचन्द्र ने उत्तराध्ययन के ३/१४ और १६/१६ ऐसे दो सन्दर्भ दिये हैं। किन्तु वे दोनों ही भ्रान्त हैं।३८ हरिकेशिबल चाण्डाल-श्रमण और उसके सहायक यक्ष का विवरण उत्तराध्ययन के बारहवें अध्याय में हैं। गण्डितिंदुकयक्ष का नाम पूर्वक उल्लेख उत्तराध्ययन नियुक्ति में है। जैनधर्म प्रारम्भ से ही कर्मकाण्ड और जातिवाद का विरोधी रहा है और उनके इस विरोध की तीन घटनाएँ वाराणसी के साथ ही जुड़ी हुई हैं। प्रथम घटना- पार्श्वनाथ और कमठ तापस के संघर्ष की है; दूसरी घटना हरिकेशिबल की याज्ञिकों से विरोध की है जिसमें जातिवाद और हिंसक यज्ञों का खण्डन है और तीसरी घटना जयघोष और विजयघोष के बीच संघर्ष की है। इसमें भी सदाचारी व्यक्ति को सच्चा ब्राह्मण कहा गया है और वर्णव्यवस्था का सम्बन्ध जन्म के स्थान पर कर्म से बताया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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