Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 4
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 151
________________ १४४ (७) पुण्य केवल आस्रव या बन्ध रूप नहीं है, अपितु संवर और निर्जरा रूप भी है, अत: पुण्य हेय नहीं उपादेय है। (८) पुण्य-पाप कर्म का सम्बन्ध उनकी फलदान शक्ति-अनुभाग से है, स्थिति बन्ध से नहीं है। (९) जैन दर्शन में वीतरागता की उपलब्धि के लिये रागादि पापों को ही त्याज्य कहा है, पुण्य को नहीं। अत: आस्रव, संवर, निर्जरा, मोक्ष आदि तत्त्वों के भेद-उपभेद का प्रतिपादन पाप को लक्ष्य में रखकर ही किया है, पुण्य को लेकर नहीं। (१०) जैन कर्म-सिद्धान्त में जीव के स्वभाव व गुण का घातक घाती कर्मों को ही कहा है, अघाती कर्मों को नहीं। अघाती कर्मों की असाता वेदनीय, नीच गोत्र, अनादेय, अयशकीर्ति आदि पापप्रकृतियों की सत्ता भी जीव के केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि किसी भी गुण की उपलब्धि में बाधक नहीं है। अत: पुण्य प्रकृतियों को जीव के किसी गुण की उपलब्धि में एवं वीतरागता में बाधक मानना सिद्धान्त विरुद्ध है। (११) पुण्य-पाप दोनों विरोधी हैं। अत: जितना पाप घटता है उतना ही पुण्य बढ़ता है। पुण्य के अनुभाग की वृद्धि पाप के क्षय की सूचक है। पुण्य के अनुभाग के घटने से पाप कर्मों के स्थिति और अनुभाग बन्ध नियम से बढ़ते हैं। (१२) पुण्य के अनुभाग का किसी भी साधना से यहाँ तक कि केवल समुद्घात से भी क्षय नहीं होता है। (१३) चारों अघाती कर्मों की पुण्य प्रकृतियों का उपार्जन चारों कषायों के घटने से व क्षय से होता है। (१४) पुण्य त्याज्य नहीं है, पुण्य के साथ रहा हुआ फलाकांक्षा निदान, भोक्तृत्वभाव कर्तृत्वभाव रूप कषाय व पाप त्याज्य है। जैसे गेंहू के साथ रहे हुए कंकर-मिट्टी एवं भूसा त्याज्य है, गेहूँ त्याज्य नहीं है। . (१५) पुण्य का अनुभाग बढ़कर चतुः स्थानिक हुए बिना सम्यग्दर्शन और उत्कृष्ट हए बिना केवलज्ञान नहीं होता है। अत: पुण्य आत्म-विकास में, साधना में बाधक व हेय नहीं है। यह तो हमने लोढ़ाजी की स्थापनाओं की संक्षिप्त झलक दी है। उन्होंने अपनी कृति के अन्त में ऐसे एक सौ इक्कीस तथ्य प्रस्तुत किये हैं, जो पुण्य की उपादेयता को सिद्ध करते हैं। वस्तुत: उनकी ये स्थापनाएं किसी पक्ष-विशेष के खण्डन-मण्डन की दृष्टि से नहीं, अपितु जैन कर्म सिद्धान्त के ग्रन्थों के गम्भीर आलोडन का परिणाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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