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को रखकर चलता है तो वह पुण्य को पाप में ही परिवर्तित कर देता है। उसे पापानुबन्धी पुण्य कहा है वही बन्धन रूप है। न केवल जैन परम्परा में अपितु गीता में भी कर्त्तव्य बुद्धि से किये गये कर्मबन्धन के कारण नहीं माने गये हैं, अपितु उन्हें धर्म या मुक्ति का हेतु ही कहा गया है। कर्म में रागात्मकता या फलबुद्धि आनेपर कर्त्तव्य बुद्धि समाप्त हो जाती है और कर्तव्य बुद्धि समाप्त हो जाने पर वह कर्म विकर्म या पाप कर्म बन जाता है। अत: पुण्य आस्रव का निमित्त होते हुए भी धर्म ही है, क्योंकि उसमें कर्त्तव्य बुद्धि ही होती है। अतः पुण्य को धर्म की कोटि में ही स्थान देना होगा ।
पुण्य धर्म नहीं है अथवा धर्म पुण्य नहीं है या पुण्य और धर्म भिन्न-भिन्न हैंजो लोग ऐसी अवधारणा रखते हैं, वे वस्तुतः पुण्य का अर्थ ममत्व-बुद्धि या रागात्मकता से युक्त कर्म ही लेते हैं । किन्तु सभी शुभ कर्म या पुण्य कर्म रागात्मकता से ही सम्पन्न होते हैं, यह नहीं माना जा सकता है। अनेक शुभ कर्म या पुण्य कर्म मात्र कर्तव्य बुद्धि से सम्पन्न होते हैं और जो कर्म मात्र कर्त्तव्य बुद्धि से सम्पन्न होते हैं वे धर्म ही कहे जायेंगे क्योंकि कर्त्तव्य- पालन धर्म ही है। वस्तुतः किसी कर्म में ममत्व बुद्धि या फलाकांक्षा का जितना तत्त्व होता है, वही उसे अशुभ या पाप में परिवर्तित कर देता है। वे पुण्य कर्म जो कर्त्तव्य बुद्धि से या निष्काम भाव से सम्पन्न किये जाते हैं, वे धर्म ही हैं। न तो बन्धन के हेतु हैं और न मोक्ष की प्राप्ति में बाधक । ऐसे कर्मों के सम्बन्ध में धर्म और पुण्य को एकात्मक या अभिन्न मानना होगा। सेवा, विनय आदि के जिन कर्मों के पीछे ममत्व बुद्धि या फलाकांक्षा जुड़ी हुई होती है, वे शुद्ध रूप में पुण्य कर्म नहीं कहे जा सकते हैं। वे पापानुबन्धी पुण्य हैं और इसी प्रकार सेवादि के जिन कार्यों में फलाकांक्षा या फल बुद्धि है वे पुण्यानुबन्धी पाप हैं। क्योंकि भविष्य की फलाकांक्षा उन्हें पापरूप बना देती है।
जिन स्थितियों में पुण्य और पाप का मिश्रण है वहाँ रागात्मकता या फलाकांक्षा की उपस्थिति उस कर्म को पुण्य से पाप के रूप में वैसा ही परिवर्तित कर देती है जैसे दूध में डाला गया थोड़ा सा दही सम्पूर्ण दूध को दही में परिवर्तित कर देता है। जैन दर्शन में पाप के जो अठारह प्रकार माने गये हैं उनमें राग-द्वेष भी हैं। रागात्मकता पुण्य नहीं है, अतः वह धर्म भी नहीं है । जिस कर्म के पीछे रागात्मकता या फलाकांक्षा होगी वह पाप कर्म या अधर्म ही होगा। अतः प्रशस्त राग जैसे शब्द मात्र भ्रान्ति ही खड़ी करते हैं। कर्म - सिद्धान्त की अपेक्षा राग कभी भी प्रशस्त नहीं है, अतः वह धर्म नहीं है।
-पुण्य वह
पुण्य क्या है? यदि इस प्रश्न का संक्षिप्त उत्तर देना है तो हम कहेंगेहै जो आत्मा को पवित्र करता है। (पुनाति वा पवित्रीकरोत्यात्मानमिति पुण्यम्) पुण्य की इस व्युत्पत्तिपरक परिभाषा के आधार पर उसे किसी भी स्थिति में हेय और त्याज्य नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि सभी धर्मों और साधना पद्धतियों का मूल उद्देश्य तो
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