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था। यह धार्मिक उदारता और समन्वयशीलता स्वयम्भू के ग्रन्थों में विभिन्न स्थलों पर पाई जाती है। 'रिट्ठनेमिचरिउ' संधि ५५/३० और 'पउमचरिउ' संधि ४३ / १९ में उनकी यह उदारता स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। उनकी उदारता को सूचित करने के लिए हम यहाँ केवल एक ही गाथा दे रहे हैं
अरहन्तु बुद्धु तुहुँ हरिहरन व, तुहुँ अण्णाण तमोहरिउ । तुहुँ सुहुमु णिरन्जणु परमपड, तुहुॅ रविदम्भु सयम्भु सिउ ।।
दिगम्बर परम्परा धार्मिक दृष्टि से श्वेताम्बरों और यापनीयों की अपेक्षा अनुदार रही है, क्योंकि वह अन्यतैथिक मुक्ति को अस्वीकार करती है, जबकि श्वेताम्बर और यापनीय अन्यतैर्थिक की मुक्ति को स्वीकार करते हैं । स्वयम्भू की इस धार्मिक उदारता की विस्तृत चर्चा प्रो० भयाणी जी ने पउमचरिउ की भूमिका में की है। पाठक उसे वहाँ देख सकते है । " डॉ० किरण सिपानी ने भी अपनी कृति में इस उदारता का उल्लेख किया है।
स्वयम्भू की रामकथा और उसका मूलस्रोत
महाकवि स्वयम्भू के पउमचरिउ का अपभ्रंश साहित्य में वही स्थान है जो हिन्दी साहित्य में तुलसी की रामकथा का है। पउमचरिउ अपभ्रंश में रचित जैन रामकथा का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। यह विमलसूरि के पउमचरियं और रविषेण के 'पद्मचरितं पर आधारित है। यह ५ काण्डों और ९० संधियों में विभाजित है इसके विद्याधरकाण्ड में २० संधियाँ, अयोध्याकाण्ड में २२ संधियाँ, सुन्दरकाण्ड में १४ संधियाँ, युद्धकाण्ड में २१ संधियाँ और उत्तरकाण्ड में १३ संधियाँ हैं। इसकी इन ९० संधियों में ८२ संधियों की रचना स्वयं स्वयम्भू ने की थी । अन्तिम ७ संधियों की रचना उनके पुत्र त्रिभुवन ने की थी । ८३वीं सन्धि आंशिक रूप से दोनों की संयुक्त रचना प्रतीत होती है। । ज्ञातव्य है कि स्वयम्भू ने राम और कृष्ण दोनों ही महापुरुषों के चरित्रों को लेकर अपभ्रंश भाषा में अपनी रचनाएँ कीं। उन्होंने जहाँ रिट्ठनेमिचरिउ अपरनाम हरिवंशपुराण में २२वें तीर्थंकर अरिष्ठनेमि के साथ-साथ कृष्ण तथा कौरव पाण्डव की कथा का विवेचन किया है, वहीं पउमचरिउ में रामकथा का । उनकी रामकथा का आधार विमलसूरि का पउमचरियं रहा है। जैन रामकथा में पउमचरियं का वही स्थान है जो हिन्दू रामकथा में वाल्मीकि रामायण का है। वस्तुतः रामकथा साहित्य में वाल्मिकी की रामायण के पश्चात् यदि कोई ग्रन्थ है, तो वह विमलसूरि का पउमचरियं (ईसा की दूसरी, तीसरी शती) है। जैनों ने राम (पद्म) को अपने ६३ शलाका पुरुषों में महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है। जैनों में रामकथा की दो धाराएँ प्रचलित रही है एक धारा गुणभद्र के उत्तरपुराण की है, जिसका मूलस्त्रोत संघदासगणि की वसुदेवहिण्डी में मिलता है, तो दूसरी धारा का आधार विमलसूरि का पउमचरियं है। जैन आचार्यों ने जिन-जिन भाषाओं को अपनी
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