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रविषेण के समान इन्होंने भी महावीर के चरणांगुष्ठ से मेरु के कम्पन का उल्लेख किया है। यह श्वेताम्बर मान्यता है। भगवान् के चलने पर देवनिर्मित कमलों का रखा जाना-भगवान् का एक अतिशय माना गया है। यह भी श्वेताम्बर मान्यता है। तीर्थंकर का मागधी भाषा में उपदेश देना। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर मान्य आगम समवायांग में यह मान्यता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार तो तीर्थंकर की
दिव्यध्वनि खिरती है, जो सर्व भाषा रूप होती है। १०. दिगम्बर उत्तरपुराण में सगरपुत्रों का मोक्षगमन वर्णित है जबकि विमलसूरि के
पउमचरियं के आधार पर रविषेण और स्वयम्भू ने भीम एवं भागीरथ को छोड़कर शेष का नागकुमार देव के कोप से भस्म होना बताया।
सुश्री कुसुम पटोरिया के अनुसार इन वर्णनों के आधार पर स्वयम्भू यापनीय सिद्ध होते हैं।
इस प्रकार इन सभी उल्लेखों में स्वयम्भू की श्वेताम्बर मान्यता ये निकटता और दिगम्बर मान्यताओं ये भिन्नता यही सिद्ध करती है कि वे यापनीय परम्परा से सम्बद्ध रहे होंगे।
पुनः स्वयम्भू मुनि नहीं, अपितु गृहस्थ ही थे, उनकी कृति ‘पउमचरिउ' से जो सूचनाएँ हमें उपलब्ध होती हैं, उनके आधार पर उन्हें यापनीय परम्परा से सम्बन्धित माना जा सकता है।
स्वयम्भू का निवास स्थल सम्भवतः पश्चिमोत्तर कर्नाटक रहा हैं। अभिलेखीय साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि उस क्षेत्र पर यापनीयों का सर्वाधिक प्रभाव था। अत: स्वयम्भू के यापनीय संघ से सम्बन्धित होने की पुष्टि क्षेत्रीय दृष्टि से भी हो जाती है।
काल की दृष्टि से स्वयम्भू ७ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और ८ वीं शती के पूर्वार्ध के कवि हैं। यह स्पष्ट है कि इस काल में यापनीय संघ दक्षिण में न केवल प्रवेश कर चुका था, अपितु वहाँ प्रभावशाली भी बन गया था। अत: काल की ष्टि से भी स्वयम्भू को यापनीय परम्परा से सम्बन्धित मानने में कोई बाधा नहीं आती है।
साहित्यिक प्रमाण की दृष्टि से पुष्पदन्त के महापुराण की टीका में स्वयम्भू को स्पष्ट रूप से यापनीय (आपुली) बताया गया है। उसमें लिखा है- “सयंभू पत्यडिबद्ध कर्ता आपलीसंघीयः' इस कथन से यह निष्कर्ष निकलता है कि वे यापनीय संघ से सम्बन्धित थे।
स्वयम्भू के यापनीय संघ से सम्बन्ध होने के लिए प्रो० भयाणी ने एक और महत्वपूर्ण प्रमाण यह दिया है कि यापनीय संघ वैचारिक दृष्टि से उदार और समन्वयवादी
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