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इसके अतिरिक्त भद्रबाहु के कृतित्व के सम्बन्ध में जो नई बात मुझे ज्ञात हुई वह यह है कि उत्तराध्ययनसूत्र के संकलनकर्ता भी श्रुतकेवली भद्रबाहु हैं। उत्तराध्ययन के अध्ययन अंग आगमों एवं पूर्वो से उद्धृत हैं।४५ इस प्रकार उत्तराध्ययन एक कर्तृक नहीं होकर एक संग्रह ग्रन्थ ही सिद्ध होता है अत: इसका कर्ता कौन है, यह प्रश्न निरर्थक है। फिर भी यह प्रश्न तो बना ही रहता है कि इसका संग्रह या संकलन किसने किया? प्राचीनकाल में संग्राहक या संकलनकर्ता कहीं भी अपना नाम निर्देश नहीं करते थे। अत: इस सम्बन्ध में एक सम्भावना यह व्यक्त की जा सकती है कि उत्तराध्ययन के अध्ययन पूर्वो से उद्धृत हैं अत: उसके संकलनकर्ता कोई पूर्वधर आचार्य रहे होंगे। पूर्वधरों में भद्रबाहु का नाम महत्त्वपूर्ण है अत: भद्रबाहु उत्तराध्ययन के संकलनकर्ता हैं यह सम्भावना व्यक्त की जा सकती है। इस सम्बन्ध में एक प्रमाण आचार्य आत्माराम जी ने अपनी उत्तराध्ययन की भूमिका में दिया है। वे लिखते हैं कि 'भद्रबाहुना प्रोक्तानि भद्रबाहानि उत्तराध्ययनानि' अर्थात् भद्रबाहु द्वारा प्रोक्त होने से उत्तराध्ययनों को भद्रबाहव भी कहा जाता है। इस आधार पर कई विद्वानों ने उत्तराध्ययन के संकलनकर्ता के रूप में भद्रबाहु को मानने की सम्भावना व्यक्त की है। आत्मारामजी म.सा० ने भी उत्तराध्ययन की भूमिका में यह निर्देश तो किया है कि उत्तराध्ययन का एक नाम 'भद्रबाहव' भी है किन्तु उत्तराध्ययन का यह नाम कहां उपलब्ध होता है इसका उल्लेख उन्होंने नहीं किया है। किन्तु उनके अनुसार उपरोक्त पंक्ति के आधार पर भद्रबाहु को उत्तराध्ययन का रचयिता मानने का कोई औचित्य नहीं हैं, क्योंकि उपर्युक्त कथन में भद्रबाहुना के साथ प्रोक्तानि क्रियापद प्रयुक्त हुआ है जिसकी व्युत्पत्ति 'प्रकर्षेण उक्तानि प्रोक्तानि' है अर्थात् विशेष रूप से व्याख्यात, विवेचित या अध्यापित है। प्रोक्तानि का अर्थ रचितानि नहीं हो सकता है। इस बात की पुष्टि शाकटायन व्याकरण के प्रोक्ते (३/१/६९), हेम व्याकरण के 'तेन प्रोक्ते' (६/३/१८) तथा पाणिनीय व्याकरण के तेन प्रोक्तं (४/३/१०) सूत्रों की व्याख्या से भी होती है।४६
पुन: भाषा, शैली एवं विषयवस्तु की दृष्टि से विचार करने पर भी उत्तराध्ययन के सभी अध्ययनों को एक काल की रचना नहीं माना जा सकता है। इसमें एक ओर प्राचीन अर्धमागधी प्राकृत के शब्दों का प्रयोग मिलता है तो दूसरी ओर अर्वाचीन महाराष्टी प्राकृत के शब्द भी उपलब्ध होते हैं। शैली की दृष्टि से भी कुछ अध्ययन व्यास शैली में लिखे गये हैं तो कुछ समास शैली में हैं। अत: ये सब तथ्य भी उत्तराध्ययन के एक कर्तृक मानने में विसंगति उत्पन्न करते हैं।
फिर भी इस आधार पर इतना तो माना ही जा सकता है कि उत्तराध्ययन के संकलनकर्ता सम्भवत: भद्रबाहु रहे हों। यह स्पष्ट है कि नियुक्ति में उत्तराध्ययन के ३६ अध्ययनों पर नियुक्ति लिखी गई है अत: नियुक्तिकार के समक्ष छत्तीस अध्ययन रूप उत्तराध्ययन उपस्थित था। यदि नियुक्तियों के कर्ता श्रुतकेवली भद्रबाहु (प्रथम) को मानते
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