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भूमिका
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दो-दो उपभेद होते है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के भी पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो भेद होते हैं। पञ्चेन्द्रियों के पर्याप्त, अपर्याप्त तथा संज्ञी और असंज्ञी ऐसे उपभेद होते हैं। इनमें पर्याप्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय में चौदह गुणस्थान होते हैं, शेष सभी जीवों में मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। ज्ञातव्य है कि इसी सन्दर्भ में जीवसमास में आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छास, भाषा और मन- ये छ: पर्याप्तियाँ बताई गयी है और यह बताया गया है कि एकेन्द्रिय जीवों में चार, विकलेन्द्रिय में पाँच और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय में छः पर्याप्तियाँ होती है।
काय-मार्गणा की चर्चा करते हुए इसमें षट्जीवनिकायों और उनके भेद-प्रभेदों की विस्तार से चर्चा की गई है। षट्जीवनिकायों के भेद-प्रभेदों की यह चर्चा मुख्यतः उत्तराध्ययनसूत्र के छत्तीसवें अध्ययन के समान ही है। यद्यपि यह चर्चा उसकी अपेक्षा संक्षिप्त हैं, क्योंकि इसमें त्रस-जीवों की चर्चा अधिक विस्तार से नहीं की गई है। इसी काय-मार्गणा की चर्चा के अन्तर्गत ग्रन्थकार ने जीवों के विभिन्न कुलों (प्रजातियों) एवं योनियों (जन्म ग्रहण करने के स्थान) की भी चर्चा की गई है। योनियों की चर्चा के प्रसंग में संवृत्त, विवृत्त, संवृत्त-विवृत्त तथा सजीव, निर्जीव और सजीव-
निर्जीव एवं शीत, उष्ण तथा शीतोष्ण योनियों की चर्चा है। इसी क्रम में आगे छह प्रकार के संघयण तथा छह प्रकार के संस्थानों की भी चर्चा की है। इसी क्रम में इस सबकी भी विस्तार से चर्चा की गई है कि किन-किन जीवों की कितनी कुलकोटियाँ होती हैं। वे किस प्रकार की योनि में जन्म ग्रहण करते हैं। उनका अस्थियों का ढाँचा अर्थात् संघहन किस प्रकार का होता है तथा उनकी शारीरिक संरचना कैसी होती है? इसी क्रम में आगे पाँच प्रकार के शरीरों की भी चर्चा की गई है और यह बताया गया है कि किस प्रकार के जीवों को कौन-कौन से शरीर प्राप्त होते हैं।
योग-मार्गणा के अन्तर्गत मन, वचन और काययोग की चर्चा की गई है और यह बताया गया है कि किस प्रकार के योग में कौन-सा गुणस्थान पाया जाता है।
योग-मार्गणा के पश्चात् वेद-मार्गणा की चर्चा की गई है। जैन परम्परा में वेद का तात्पर्य स्त्री, पुरुष अथवा नपुंसक की काम वासना से है।
वेदमार्गणा की चर्चा के पश्चात् कषाय-मार्गणा की चर्चा है। इसमें क्रोध, मान, माया और लोभ- इन चार कषायों में प्रत्येक के अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यानी-प्रत्याख्यानी एवं संज्वलन ऐसे चार-चार विभाग किये गये हैं और यह बताया गया है कि किस गुणस्थान में कौन से प्रकार के कषाय पाये
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