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जीवसमास
जाते हैं।
अग्रिम ज्ञान-मार्गणा के अन्तर्गत पाँच प्रकार के ज्ञानों की चर्चा है। इसमें मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान के भेद-प्रभेद भी बताये गये हैं तथा यह बताया गया है कि केवलज्ञान का कोई भेद नहीं होता है। आगे इसी प्रसंग में कौन से ज्ञान किस गुणस्थान में पाये जाते हैं, इसका भी संक्षिप्त विवेचन उपलब्ध होता है।
संयम-मार्गणा के अन्तर्गत पाँच प्रकार के संयमों की चर्चा की गई है और यह बताया गया है कि किस गुणस्थान में कौन-सा संयम पाया जाता है। इसी चर्चा के प्रसंग में पुलाक, बकुश, कुशील, निम्रन्थ और स्नातक ऐसे पाँच प्रकार के श्रमणों का भी उल्लेख किया गया है। ।
दर्शन-मार्गणा के अन्तर्गत चार प्रकार के दर्शनों का उल्लेख करते हुए यह बताया है कि किस गुणस्थान में कितने दर्शन होते हैं।
लेश्या-मार्गणा के अन्तर्गत छ: लेश्याओं का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। इसी क्रम में लेश्या और गुणस्थान के सह-सम्बन्ध को भी निरूपित किया गया है। इसमें यह भी बताया गया है कि नारकीय जीवों और देवताओं में किस प्रकार लेश्या पायी जाती है, किन्तु यहाँ हमें ध्यान रखना चाहिए कि नारकीय जीवों और देवों के सम्बन्ध में जो लेश्या की कल्पना है, वह द्रव्य-लेश्या को लेकर है, उनमें भाव-लेश्या तो छहों ही सम्भव हो सकती हैं। वस्तुत: यहाँ द्रव्य-लेश्या स्वभावगत विशेषता की सूचक है।
भव्यत्व मार्गणा के अन्तर्गत भव्य और अभव्य ऐसे दो प्रकार के जीवों का निर्देश है। जैन दर्शन में भव्य से तात्पर्य उन आत्माओं से है जो मोक्ष को प्राप्त करने में समर्थ हैं। इसके विपरीत अभव्य जीवों में मोक्ष को प्राप्त करने की क्षमता का अभाव होता है। गुणस्थानों की अपेक्षा से अभव्य जीवों में मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है जबकि भव्य जीवों में चौदह ही गुणस्थान सम्भव हैं।
भव्यत्व-मार्गणा के पश्चात् प्रस्तुत कृति में सम्यक्त्व-मार्गणा का निर्देश किया गया है। सम्यक्त्व-मार्गणा के अन्तर्गत औपशमिक, वेदक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ऐसे चार प्रकार के सम्यक्त्व की चर्चा है। इसमें यह भी बताया गया है कि किस-किस गुणस्थान में किस प्रकार का सम्यक्त्व पाया जाता है।
संज्ञी-मार्गणा के अन्तर्गत संज्ञी और असंज्ञी- ऐसे दो प्रकार के जीवों का निर्देश किया गया है जिनमें हेय, ज्ञेय और उपादेय का विवेक करने की
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