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ने उसी को यथार्थ के धरातल पर अवतरित किया है। उनका यह अवदान उस युग में तो प्रासंगिक था ही, किन्तु आज भी जब जातिवाद, वर्गवाद और धार्मिक अन्धविश्वासरूपी अजगर भारतीय संस्कृति को निगलने हेतु अपना मुंह फैलाये खड़े हैं, और भी अधिक प्रासंगिक है। आज विद्वानों से यह अपेक्षा है कि वे तुलनात्मक अध्ययन से इस तथ्य को स्पष्ट करें कि वैदिक और श्रमण धाराओं का पारस्परिक अवदान कितना है।
जहाँ प्रारम्भ में श्रमणधारा ने वैदिकों को प्रभावित किया और उनमें तप, त्याग और आध्यात्म का बीज वपित कर औपनिषदिक धारा का विकास किया, वही परवर्ती काल में उसी औपनिषदिक धारा से विकसित बृहद् हिन्दू परम्परा से प्रभावित भी हुए हैं। श्रमणों में विशेष रूप से जैन परम्परा में पूजा और उपासना में जिस कर्मकाण्ड का विकास हुआ वह उसपर बृहद् हिन्दू परम्परा का प्रभाव है। जैन देवमण्डल में यक्ष-यक्षी के रूप में अनेक हिन्दू देवी-देवता सम्मिलित किये गये। काली, महाकाली, गौरी, गन्धारी, ज्वालामालिनी, अम्बिका, चक्रेश्वरी आदि देवियाँ शासनरक्षिका के रूप में स्वीकार कर ली गईं। श्रुतदेवता के रूप में सरस्वती और सम्पत्ति प्रदाता के रूप में लक्ष्मी (श्रीदेवी) को जैनों ने आज से दो हजार वर्ष पूर्व ही गृहीत कर लिया था। आज भारत में जो सबसे प्राचीन सरस्वती की प्रतिमा है वह जैन सरस्वती है। लखनऊ संग्रहालय में यह लगभग दो सहस्राद्वि पूर्व की अभिलिखित सरस्वती प्रतिमा उपलब्ध है। जैनों में आज जो पूजा विधान उपलब्ध है वह हिन्दू परम्परा से आया है। उसके पूजा मन्त्र थोड़े से शाब्दिक हेर-फेर के साथ यथावत गृहीत हैं। तन्त्र के प्रभाव से जैन साधना पद्धति कितनी प्रभावित हुई है, यह जानना कम रुचिकर नहीं है। भौतिक उपलब्धि के लिए देवी उपासना और मारण, मोहन, उच्चाटन जैसे षट्कर्म जो अहिंसा प्रधान निवृत्तिमार्गी परम्परा के प्रतिकूल थे, वे सब तन्त्र की अन्य सहवर्ती परम्परा के प्रभाव से ही जैन धर्म में प्रविष्ट हुए हैं। यहाँ यह चर्चा इसलिए अपेक्षित है कि जैनधर्म
और दर्शन के अध्ययन और शोध की सम्यक दिशा तभी निर्धारित होगी, जब विभिन्न भारतीय परम्पराओं के आदान प्रदान को लोग समझेगें। क्योंकि कोई भी धर्म या संस्कृति शून्य में जन्म नहीं लेती है। जैन विद्या का अध्ययन तभी सार्थक होगा जब हम हिन्दू, बौद्ध और इतर परम्पराओं से उसके अन्तः सम्बन्धों को स्पष्ट करेंगे।
यह सत्य है कि प्रत्येक धर्म और दर्शन का स्वतन्त्र रूप से अध्ययन तो विपुल मात्रा में हुआ है, किन्तु इनके परस्परिक अन्त: सम्बन्धों को समझने के प्रयास कम ही हुए हैं। पुनः भारतीय धर्मों और दर्शनों के प्रसंग में तो इस प्रकार के परस्परिक प्रभावों और अन्तःसम्बन्धों को समझना इसलिए भी आवश्यक है कि भारतीय संस्कृति एक सशलिष्ट संस्कृति है, उसको खण्ड-खण्ड में विभाजित करके नहीं समझा जा सकता हैं। जैन धारा के अध्ययन के लिए बौद्ध और हिन्दू धाराओं का अध्ययन अपेक्षित है।
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