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जैनविद्या के अध्ययन की तकनीक
जैन विद्या एक व्यापक शब्द है इसमें न केवल जैन धर्म और दर्शन का समावेश होता है, अपितु जैन इतिहास, कला, पुरातत्त्व, साहित्य, समाज और संस्कृति सभी कुछ समाहित है। आज जैन विद्या के अध्ययन की आवश्यकता तथा उसके मूल्य और महत्त्व को समझने के लिए हमें इन सभी क्षेत्रों में जैनों के अवदान का आकलन करना होगा। यह सत्य है कि जैन समाज भारतीय समाज और संस्कृति का एक छोटा सा अंग है। आज जैनों की जनसंख्या भारत की जनसंख्या के एक प्रतिशत से अधिक नहीं है, किन्तु इनका अवदान विपुल है। यदि हम जनसंख्या के अनुपात में जैनों के भारतीय संस्कृति में अवदान का मूल्यांकन करते हैं तो हम आश्चर्यचकित रह जाते हैं। आज भारतीय संस्कृति के प्रत्येक क्षेत्र में चाहे वह पुरा सम्पदा का हो या साहित्य का हो, चाहे शिक्षा और समाज सेवा का हो, उनका अवदान तीस प्रतिशत से अधिक ही है। एक प्रतिशत जनसंख्या का अवदान यदि तीस प्रतिशत से अधिक हो तो यह उस समाज के लिए कम गौरव की बात नहीं है।
__ भारतीय संस्कृति के इतिहास में आदिकाल से ही हम निवृत्तिमार्गी श्रमण-परम्परा और प्रवृत्तिमार्गी वैदिक-परम्परा का अस्तित्व साथ-साथ ही देखते हैं। मात्र यही नहीं भारतीय इतिहास की इन दोनों धाराओं ने एक दूसरे को प्रभावित भी किया है। आज हम जिस बृहद हिन्दू समाज और संस्कृति को देखते हैं वह केवल वैदिक धारा की परिणति नहीं है अपितु वैदिक और श्रमण दोनों धाराओं का समन्वित रूप है। भारतीय वाङ्मय में ऋग्वेद प्राचीनतम है, उसमें भारतीय संस्कृति की इन दोनों धाराओं का आर्हत्
और बार्हत् के रूप में उल्लेख उपलब्ध है।ऋग्वेद न केवल व्रात्यों, श्रमणों एवं आर्हतों की उपस्थिति का संकेत करता है, अपितु उसमें ऋषभ, अजित, अरिष्टनेमि, जिन्हें जैन-परम्परा अपने तीर्थंकर के रूप में मान्य करती है, के उल्लेख भी हैं। ध्यान और योग की इस श्रमण धारा के अस्तित्व के संकेत तो भारतीय इतिहास में वैदिकों के भी पूर्व हैं। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के उत्खनन से जिस प्राचीन भारतीय संस्कृति की जानकारी हमें उपलब्ध होती है उससे भी यही सिद्ध होता है कि वैदिक संस्कृति के आगमन से पूर्व भी भारत में एक उच्च आध्यात्मिक संस्कृति अपना अस्तित्व रखती थी। उस उत्खनन में ध्यानस्थ योगियों की सीलें आदि मिलना यही सिद्ध करता है कि
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