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है, तब तक संयम या विरति संभव नहीं है। इसी प्रकार अविरति का कारण भी कषाय ही है। जब हम बन्ध के तीसरे हेतु प्रमाद पर विचार करते हैं, तो भी हमें स्पष्ट लगता कि प्रमाद की सत्ता भी कषाय के कारण ही है। जब तक प्रत्याख्यानी कषायों की चौड़ी सत्ता में है तब तक प्रमाद की भी सत्ता है । गुणस्थान सिद्धान्त में भी स्पष्ट रूप से यह बताया गया है कि प्रत्याख्यानी कषाय- चतुष्क के उदय में रहते हुए अप्रमत्त-संयत्त गुणस्थान की उपलब्धि सम्भव नहीं होती है । मात्र इतना ही नहीं, प्रबुद्ध जैनाचार्यों ने कषायों को प्रमाद का ही एक प्रकार माना है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद- तीनों का हेतु कषाय ही है। अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क के क्षय से मिथ्यात्व का क्षय होता है। अप्रत्याख्यानी कषाय- चतुष्क के क्षय या क्षयोपशम से प्रमाद समाप्त होता है अतः मिथ्यात्व, अविरत और प्रमाद के मूल में कषाय ही रहे हुए हैं। कषयों के अभाव में इनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती है, अतः बन्धन के प्रथम चार कारणों में कषाय ही प्रमुख कारण है, शेष मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद तो उसके आनुषंगिक ही हैं, कषाय की सत्ता में ही उनकी सत्ता है । निष्कर्ष यह है कि बन्धन के दो ही कारण हैं- कषाय और योग । इन दोनों कारणों में भी योग बन्धन का निमित्त कारण है । कषायों के अभाव में उसमें बन्धन का सामर्थ्य नहीं है। जैन दर्शन की मान्यता है कि कषाय के अभाव में मात्र योग के परिणामस्वरूप जो ईर्यापथिक आस्रव और बन्ध होता है वह क्षणिक ही है। उसमें प्रथम समय में बन्ध होता है और दूसरे समय में वह निर्जरित हो जाता है। वस्तुतः इस प्रकार का बन्ध वास्तविक बन्ध नहीं है। जैसे पानी में खींची गई लकीर खींचने के साथ ही समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार ईर्यापथिक बन्ध अपने बन्धन के साथ ही समाप्त हो जाता है। इस समस्त चर्चा का फलित यह है कि कषाय ही बन्धन के प्रमुख कारण हैं, योग तो अकिंचित्कर है। जिस प्रकार घी के अभाव में लड्डू बंधता नहीं है, उसी प्रकार कषाय के अभाव में कर्म भी बंधते नहीं हैं।
पुन: जैन कर्म - सिद्धान्त में बन्धन के चार प्रकार माने गये हैं- (१) प्रकृति बन्ध, (२) प्रदेश बन्ध, (३) स्थिति बन्ध और (४) अनुभाग बन्ध । यदि हम बन्धन के उपरोक्त दो कारण - कषाय और योग के सन्दर्भ में बन्धन के इन चार प्रकारों की चर्चा करें, तो हम यह पाते हैं कि योग प्रकृति-बन्ध और प्रदेश-बन्ध के कारण हैं; जबकि कषाय स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध के कारण हैं। योग अर्थात् हमारी मानसिक, वाचिक और कायिक क्रियाओं द्वारा कर्मों की प्रकृति अर्थात् उनका स्वरूप और उनके प्रदेश अर्थात् मात्रा निर्धारित होती है। किन्तु यह ठीक वैसा ही है जैसा लड्डू बनाने के लिए वस्तु विशेष का एक निर्धारित मात्रा में लाया गया आटा हो। उससे लड्डू तो तभी बनेगा जब उसमें घी और शक्कर का सम्मिश्रण होगा। इसी प्रकार कर्म-बन्ध की प्रक्रिया में भी स्थिति और अनुभाग अर्थात् रस का निर्धारण कषायों के माध्यम से ही होता है । कषाय रूपी घी और शक्कर ही उस आटे को लड्डू के रूप में परिगत करते हैं। कर्म-बन्ध
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