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में स्थिति अर्थात् काल मर्यादा और अनुभाग अर्थात् उनकी विपाकानुभूति (रस) का निर्धारण तो कषाय के द्वारा ही होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कर्म-बन्ध और विपाक (कर्म-फल) में मुख्य भूमिका कषाय की ही है। कषायों की तरतमता ही व्यक्ति के बन्धन के स्वरूप का निर्धारक तत्त्व है। संक्षेप में कहें, तो कषाय ही बन्धन के कारण हैं, हमारे सांसारिक अस्तित्व के आधार हैं और कषायों का क्षय या अभाव ही मुक्ति है। कषाय के भेद
आवेगों की अवस्थाएँ भी तीव्रता की दृष्टि से समान नहीं होती हैं, अत: तीव्र आवेगों को कषाय और मंद आवेगों या तीव्र आवेगों के प्रेरकों को नो-कषाय (उप-कषाय) कहा गया है। कषायें चार हैं- १. क्रोध, २. मान, ३. माया और ४. लोभ। आवेगात्मक अभिव्यक्तियों की तीव्रता के आधार पर इनमें से प्रत्येक को चार-चार भागों में बाँटा गया है- १. तीव्रतम, २. तीव्रतर, ३. तीव्र और ४. मंद। आध्यात्मिक दृष्टि से तीव्रतम क्रोध आदि व्यक्ति के सम्यक् दृष्टिकोण या विवेक में विकार ला देते हैं। तीव्रतर क्रोध आदि आत्म-नियन्त्रण की शक्ति को छिन्न-भिन्न कर डालते हैं। तीव्रक्रोध आदि आत्मनियन्त्रण की शक्ति के उच्चतम विकास में बाधक होते हैं। मंद क्रोध आदि व्यक्ति को पूर्ण वीतराग नहीं होने देते। चारों कषायों की तीव्रता के आधार पर चार-चार भेद हैं। अतः कषायों की संख्या १६ हो जाती हैं। निम्न नो उप-आवेग, उप-कषाय या कषाय-प्रेरक माने गये हैं- १. हास्य, २. रति, ३. अरति, ४. शोक, ५. भय, ६.घृणा, ७. स्त्रीवेद (पुरुष-सम्पर्क की वासना), ८. पुरुषवेद (स्त्री-सम्पर्क की वासना)
और ९. नपुंसकवेद (दोनों के सम्पर्क की वासना)। इस प्रकार कुल २५ कषायें हैं। क्रोध
यह एक मानसिक किन्तु उत्तेजक अवेग है। उत्तेजित होते ही व्यक्ति भावाविष्ट हो जाता है। उसकी विचार-क्षमता और तर्क-शक्ति लगभग शिथिल हो जाती है। भावात्मक स्थिति में बढ़े हुए आवेग की वृत्ति युयुत्सा को जन्म देती है। युयुत्सा से अमर्ष और अमर्ष से आक्रमण का भाव उत्पन्न होता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार क्रोध और भय में यही मुख्य अन्तर है कि क्रोध के आवेग में आक्रमण का और भय के आवेग में आत्म-रक्षा का प्रयत्न होता है। जैन-दर्शन में सामान्यतया क्रोध के दो रूप मान्य हैं- १. द्रव्यक्रोध और २. भाव-क्रोध द्रव्य-क्रोध को आधुनिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से क्रोध का आंगिक पक्ष कहा जा सकता है, जिसके कारण क्रोध में होनेवाले शारीरिक परिवर्तन होते हैं। भावक्रोध क्रोध की मानसिक अवस्था है। क्रोध का अनुभूत्यात्मक पक्ष भाव-क्रोध है, जबकि क्रोध का अभिव्यक्त्यात्मक या शरीरात्मक पक्ष द्रव्य-क्रोध है। क्रोध के विभिन्न रूप हैं। भगवतीसूत्र में इसके दस समानार्थक नाम वर्णित हैं- १. क्रोध- आवेग की उत्तेजनात्मक अवस्था. २. कोप-क्रोध से उत्पन्न
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