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ही वहाँ बैठा रह गया। मालूम होने पर कि यह सब पत्थर की करामात थी, तो उसे अपनी मूर्खता पर पछताना पड़ा।
हम लोग भी इस चिन्तामणि रत्न के समान मानव-शरीर को विषय भोगों में नष्ट कर देंगे, सुखा देंगे, तो हमें दुर्गति में जाकर पछताना होगा इस नरजन्म के लिए। जिस प्रकार समुद्र से अत्यन्त कठिनता से प्राप्त किया मोती हाथ से छूट जाने के बाद फिर से हाथ आना दुर्लभ है, ठीक उसी प्रकार यह नर-तन छूटने के बाद इसका पाना भी अत्यन्त दुर्लभ है।
धर्म की प्राप्ति पापमय परिणामों से नहीं होती है, अतः पात्रता प्रकट करने के लिए प्रथमतः पुण्यकार्यों (जिनेन्द्र भगवान् की पूजन, व्रतादि) को अवश्य करना चाहिये । आचार्य अकलंकदेव ने अरहंत भगवान् की भक्ति को मुक्ति का सोपान माना है तथा सम्यक्त्व के साथ किये गये प्रशस्त अध्यवसायों को 'कर्म-ईंधन को जलाने वाली अग्नि' कहा है। धार्मिक कार्यों की प्रेरणा का उद्देश्य प्रशस्त भावों में जीव को नियत कर उसे सम्यक्त्व का पात्र बनाना है। क्योंकि शुभभाव में आये बिना धर्म की पात्रता ही नहीं बनती है। अतः 'अशुभस्य बंचनार्थम्........' की नीति के अनुसार यहाँ जीव को व्रतादि शुभ कार्यों को करने की प्रेरणा दी जा रही है।
___ सर्वप्रथम सभी को व्रतों के माध्यम से अपनी अशुभ प्रवृत्ति को रोकना चाहिये। व्रतों को धारण करना शुभोपयोग है और उसका फल स्वर्गादिक है। व्रतों को धारण न करना अशुभोपयोग है और उसका फल नरकादि है। इष्टोपदेश ग्रंथ में आचार्य पूज्यपाद महाराज ने लिखा है- जब तक मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो जाती, तब तक संसार में रहते हुये नरकादि गति में कालयापन करने की अपेक्षा स्वर्गादिक में कालयापन करना श्रेष्ठ है। अशुभोपयोग में कषायों की तीव्रता रहती है, जबकि शुभोपयोग में कषायों की मंदता रहती है। अतः सामान्य ग्रहस्थ को जो अशुभोपयोग में आसक्त है या उसे छोड़ नहीं सकते, उन्हें अशुभोपयोग को छोड़कर व्रत आदि धार्मिक क्रियाओं को करना चाहिये। अपना किया हुआ शुभ-अशुभ कर्म स्वयं जीव को ही भोगना पड़ता है। एक घटना है। किसी गाँव में एक सज्जन रहते थे। घर के सामने एक
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