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राष्ट्रकूटों का इतिहास श्रवणबेलगोल से, श. सं. १०४ ( वि. सं. १०३९ ई. स. १८२ ) का, एक लेख मिला है । इसमें इन्द्रराज चतुर्थ का उल्लेख है । यह राष्ट्रकूट-नरेश कृष्णराज तृतीय का पौत्र था। इस इन्द्रराज की माता गंगवंशी गांगेयदेव की कन्या थी, और स्वयं इन्द्रराज का विवाह राजचूडामणि की कन्या से हुआ था।
इन्द्रराज चतुर्थ की उपाधियां ये थी:-रहकन्दर्पदेव, राजमार्तन्ड, चलदककारण, चलदग्गले, कीर्तिनारायण आदि ।
यह बड़ा वीर, रणकुशल, और जीतेन्द्रिय था। इसने, अकेलेही, चक्रव्यूह को तोड़कर १८ शत्रुओं को हराया था। यद्यपि कल्लर की स्त्री गिरिगे ने इसे मोहित करने की बहुत कोशिश की, तथापि यह उसके फंदे में नहीं फँसा । इस पर वह सेना लेकर लड़ने को उद्यत होगयी। परन्तु इसमें भी उसे सफलता नहीं मिली।
पश्चिमी गंगवंशी राजा पेरमानडि मारसिंह ने, कर्कराज द्वितीय के बाद, राष्ट्रकूट राज्य को बना रखने के लिए इसी इन्द्रराज चतुर्थ को राजगद्दी पर बिठाने की कोशिश की थी। ( पहले लिखा जा चुका है कि, मारसिंह का पिता पेरमानडि भूतुग राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज तृतीय का बहनोई था । ) यह घटना शायद वि. सं. १०३० ( ई. स. १७३ ) के करीब की है । परन्तु इसके नतीजे का कुछ भी पता नहीं चलता।
इन्द्रराज चतुर्थ की मृत्यु श. सं. १०४ (वि. सं. १०३९ ) की चैत्र वदि - ( ई. स. १८२ के मार्च की २० तारीख ) को हुई थी। इसने जैनमतानुसार अनशनव्रत धारणकर प्राण त्याग किये थे।
(1) इन्सक्रिपशन्स ऐट श्रवणबेलगोल, नं०.५७ (पृ. ५३ ) ए. १७ (२) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० ६, पृ. १५२
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