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राष्ट्रकूटों का इतिहास 'रासो' में शहाबुद्दीन के स्थान पर कुतुबुद्दीन का जयचन्द्र पर चढ़ायी करना लिखा है । परन्तु फ़ारसी तवारीखों के अनुसार यह चढ़ायी शहाबुद्दीन के मरने के बाद न होकर उसकी जिंदगी में ही हुई थी, और स्वयं शहाबुद्दीन ने भी इसमें भाग लिया था । उसकी मृत्यु वि. सं. १२६२ (ई. स. १२०६ ) में गकरों के हाथ से हुई थी। इसके अलावा किसी भी फ़ारसी तवारीख में जयचन्द्र का शहाबुद्दीन से मिलजाना नहीं लिखा है । ___इन सब घटनाओं पर विचार करने से 'पृथ्वीराज रासो' का ऐतिहासिक रहस्य स्वयं ही प्रकट हो जाता है । इसके अतिरिक्त यदि हम "दुर्जनतोषन्याय" से थोड़ी देर के लिए रासो' की सारी कथा सही भी मानलें, तब भी उसमें संयोगिता-हरण के कारण जयचन्द्र का शहाबुद्दीन को पृथ्वीराज पर आक्रमण करने का निमन्त्रण देना, या उसके साथ किसी प्रकार का सम्पर्क रखना नहीं लिखा मिलता । उलटा उस (रासो) में स्थान स्थान पर पृथ्वीराज का परायी कन्याओं को हरण करना लिखा होने से उसकी उद्दण्डता; उसकी कामासक्ति का वर्णन होने से उसकी राज्य कार्य में गफलत; उसके चामुण्डराय जैसे स्वामिभक्त सेवक को बिना विचार के कैद में डालने की कथा से उसकी गलती; और उसके नाना के दिये राज्य में बसने वाली प्रजा के उत्पीडन के हाल से उसकी कठोरता ही प्रकट होती है । इसीके साथ उसमें पृथ्वीराज के प्रमाद से उसके सामन्तों का शहाबुहीन से मिलजाना भी लिखा है ।
... ऐसी हालत में विचारशील विद्वान् स्वयं सोच सकते हैं कि, जयञ्चन्द्र को हिन्दू-साम्राज्य का नाशक कह कर कलङ्कित करना कहां तक न्याय्य कहा जासकता है ?
'पृथ्वीराज रासो' के समान ही 'आलाखण्ड' में भी संयोगिता के 'स्वयंवर' आदि का किस्सा दिया हुआ है । परन्तु उसके 'पृथ्वीराजरासो' के बाद की रचना होने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि, उसके लेखक ने अपनी रचना में, ऐतिहासिक सत्य की तरफ ध्यान न देकर, 'रासो' का ही अनुसरण किया है । इसलिए उसकी कया पर भी विश्वास नहीं किया जासकता।
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