Book Title: Raja aur Praja
Author(s): Babuchand Ramchandra Varma
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 16
________________ राजा और प्रजा । १४ हम लोगों में कोई भी स्वप्रधान नहीं है बल्कि प्रत्येक व्यक्ति एक एक बड़े परिवारका प्रतिनिधि है | उसके ऊपर केवल अपना ही भार नहीं है बल्कि उसके पिता, माता, भाई, वहन, पुत्र और परिवारका जीवन भी उसीपर निर्भर करता है । उसे बहुत कुछ आत्मसंयम और आत्मत्याग करके सब काम करना पड़ता है । उसे सदासे इसीकी शिक्षा मिली है और इसीका अभ्यास हुआ है । यह बात नहीं है कि वह आत्मरक्षाकी तुच्छ इच्छा के सामने आत्मसम्मानकी बलि देता है बल्कि वह बड़े परिवार के सामने, अपने कर्त्तव्यज्ञानके सामने उसकी बलि देता है। कौन नहीं जानता कि दरिद्र भारतीय कर्मचारी नित्य कितनी फटकारें और धिक्कार सुनकर आफिससे घर चले आते हैं और उन्हें अपना अपमानित जीवन कितना असह्य और दुर्भर जान पड़ता है । उसे जो जो बातें सुननी पड़ती हैं वे इतनी कड़ी होती हैं कि उस दशामें पड़कर सबसे गया बीता आदमी भी अपने प्राण देनेके लिये तैयार हो सकता हैं; लेकिन फिर भी वह बेचारा भारतवासी दूसरे दिन ठीक समयपर पाजामेपर चपकन पहनकर फिर उसी आफिसमें जा पहुँचता है और उसी स्याहीसे भरे हुए टेबुलपर चमड़ेकी जिल्दवाला बड़ा रजिस्टर खोलकर उसी पिङ्गलवर्ण बड़े साहबकी नित्यकी फटकारें चुपचाप सहता रहता है । क्या वह आत्मविस्मृत होकर एक क्षणके लिये भी अपनी बड़ी गृहस्थीका ध्यान छोड़ सकता है ? क्या हम लोग अँगरेजों की तरह स्वतंत्र और गृहस्थीके भारसे रहित हैं । यदि हम प्राण देनेके लिये तैयार हों तो बहुतसी निरुपाय त्रियाँ और बहुत से असहाय बालक व्याकुल होकर हाथ उठाते हुए हमारी कल्पनादृष्टिके सामने आ खड़े होते हैं । हम लोगों को बहुत दिनोंसे इसी प्रकार अपमान सहनेका अभ्यास हो गया है ।

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