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राजा और प्रजा ।
हम लोगोंका देश भी वैसा ही है। जैसी धूप वैसी ही धूल । जैसी रूह वैसे ही फरिश्ते । साहब लोग बिना पंखेकी हवा खाए
और बरफका पानी पीए जीते नहीं रह सकते । लेकिन दुर्भाग्यवश यहाँके पंखे-कुली रुग्ण-प्लीहा यातापतिल्ली लेकर सो जाते हैं और बरफ सब जगह सहजमें मिल नहीं सकता। अँगरेजोंके लिये भारतवर्ष रोग, शोक, स्वजन-विच्छेद और निर्वासनका देश है। इसलिये उन्हें बहुत अधिक वेतन लेकर इन सब त्रुटियोंकी पूर्ति कर लेनी पड़ती है । लेकिन कम्बख्त एक्सचेञ्ज ( Exchange ) उसमें भी झगड़ा खड़ा करना चाहता है। अँगरेजोंको स्वार्थसिद्धिके अतिरिक्त भारतवर्ष और क्या दे सकता है ?
हाय ! हतभागिनी भारतभूमि ! तुम्हें तुम्हारा स्वामी पसन्द न आया । तुम उसे प्रेमके बन्धनमें न बाँध सकीं । लेकिन अब ऐसा काम करो जिससे उसकी सेवामें त्रुटि न हो। उसको बहुत यत्नसे पंखा झलो, उसके लिये खसका परदा टैंगवाकर उसपर पानी छिड़को जिसमें वह अच्छी तरह स्थिर होकर दो घड़ी तुम्हारे घर बैठ सके । खोलो, अपने सन्दक खोलो। तुम्हारे पास जो कुछ गहने आदि हों उन्हें बेच डालो और अपने स्वामीको भरपेट भोजन कराओ और भरजेब दक्षिणा दो । तौ भी वह तुमसे अच्छी तरहसे न बोलेगा, तो भी वह नाराज ही रहेगा और तौ भी तुम्हारे मैकेकी निन्दा ही करेगा । आजकल तुमने लज्जा छोड़कर मान अभिमांनं करना आरम्भ किया है । तुम झनककर दो चार बातें कह बैठती हो । परन्तु यह व्यर्थका बकवाद करनेकी आवश्यकता नहीं । तुम मन लगाकर वही काम करो जिससे तुम्हारा विदेशी स्वामी सन्तुष्ट हो और आरामसे रहे । तुम्हारा सौभाग्य सदा बना रहे।