Book Title: Raja aur Praja
Author(s): Babuchand Ramchandra Varma
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 68
________________ राजा और प्रजा । १२४ करते तो शायद हमें भी उनपर दया आ जाती । हमारे खयालमें इस प्रकारकी शासन - लोलुपता भारतवर्षके और किसी भी शासनकर्त्ताने इस तरह से प्रकाशित नहीं की थी । इन लाट साहबने भारत के पुराने बादशाहोंके समान दरबार करना स्थिर किया और अहंकार प्रकट करनेके लिए उस दरबारका स्थान दिल्ली नियत किया । किन्तु पूर्व देशोंके सभी राजा इस बातको जानते हैं कि दरबार अहंकार प्रकाश करनेके लिये नहीं किया जाता; यह राजाके साथ प्रजाके आनन्द-सम्मिलनका उत्सव है । इसमें केवल राजोचित ऐश्वर्यके द्वारा प्रजाको चकित स्तंभित नहीं किया जाता, किन्तु राजोचित औदार्य से उसे निकट बुलाया जाता है । दरबार क्षमा करनेका, दान करनेका और राज-शासनको मुन्दरतासे सजानेका शुभ अवसर होता है । किन्तु पश्चिमके इस ताजा नवाबने प्राच्य इतिहासको सम्मुख रखकर और वदान्यता या उदारताको सौदागरी कृपणता द्वारा खर्च करके केवल प्रतापको ही अतिशय उग्र करके प्रकाशित किया । वास्तवमें देखा जाय तो इससे अंगरेजोंकी राजश्रीने हम लोगोंके निकट गौरव नहीं पाया । इससे दरवारका उद्देश्य बिलकुल व्यर्थ हो गया । इस दरबारके दुःसह दर्प से प्राच्य हृदय पीड़ित ही हुआ, आकर्षित तो जरा भी नहीं हुआ। उसका अपरिमित अपव्यय यदि कुछ फल छोड़ गया है, तो वह अपमानकी स्मृति है । लोहे की छड़ीसे सोनेकी छड़ीका काम निकालने की चेष्टा केवल निष्फल ही नहीं होती हैं, उसका फल उल्टा भी होता है । अबकी बार राजपुत्रका भारतमें आगमन हुआ । राजनीतिकी दृष्टिसे यह परामर्श बहुत अच्छा हुआ था। क्योंकि, साधारणतः राजवंशीय पुरुषोंके प्रति भारतवर्षीय हृदय विशेषरूपसे अभिमुख रहता है । यह

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