Book Title: Raja aur Praja
Author(s): Babuchand Ramchandra Varma
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

View full book text
Previous | Next

Page 82
________________ १५७ पथ और पाथेय । सुलभता एक ओर तो कुछ दाम लेकर राजी हो जाती है, पर दूसरी ओर इतना कसकर वसूल कर लेती है कि आरम्भसे ही उसको बहुमूल्य मान लेनेसे वह अपेक्षाकृत कम मूल्यमें पाई जा सकती है। __ हमारे देशमें भी जब देशकी हितसाधनबुद्धि नामका दुर्लभ महामूल्य पदार्थ एक आकस्मिक उत्तेजनाकी कृपासे आवालवृद्धवनितामें इतनी प्रचुरतासे दिखाई पड़ने लगा जिसका हम कभी अनुमान भी न कर सकते थे, तब हमारी सरीरवी दरिद्र जातिके आनन्दका पारावार नहीं रहा । उस समय हमने यह सोचना भी नहीं चाहा कि उत्तम पदार्थकी इतनी सुलभता अस्वाभाविक है। इस व्यापक पदार्थको कार्यनियमोंसे बाँधकर संयत संहत न करनेसे इसकी वास्तविक उपयोगिता ही नहीं रह जाती। यदि सभी ऐरे गैरे पागलोंकी तरह यह कहने लगे कि हम युद्ध करनेके लिये तैयार हैं, और हम उन्हें अच्छे सैनिक समझकर इस बातपर आनन्द-मग्न होने लगे कि उनकी सहायतासे हम सहजमें सब काम कर लेंगे, तो प्रत्यक्ष युद्धके समय हम अपना सारा धन और प्राण देकर भी इस सस्तेपनके परन्तु सांघातिक उत्तरदायित्व से बच न सकेंगे। असल बात यह है कि मतवाला जिस प्रकार केवल यही चाहता है कि मेरे और मेरे साथियोंके नशेका रंग गहरा ही होता जाय, उसी प्रकार जिस समय हमने उत्तेजनाको मादकताका अनुभव किया, उस समय उसके बढ़ाते ही जानेकी इच्छा हममें अनिवार्य हो उठी और अपनी इस इच्छाको नशेकी ताड़ना न मानकर हम कहने लगे कि"शुरूमें भावकी उत्तेजना ही अधिक आवश्यक वस्तु है, यथारीति परिपक्क होकर वह अपने आप ही कार्यकी ओर अग्रसर होगी। अतः जो लोग रातदिन काम काम चिल्लाकर अपने गले सुखा रहे हैं वे छोटी

Loading...

Page Navigation
1 ... 80 81 82 83 84 85 86 87