Book Title: Raja aur Praja
Author(s): Babuchand Ramchandra Varma
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 83
________________ राजा और प्रजा। १५८ समझके लोग हैं-उनकी दृष्टि व्यापक नहीं है, वे भावुक नहीं हैं; हम केवल भावसे देशको मतवाला बना देंगे; समस्त देशको एकत्रकर भावका भैरवी चक्र बैठावेंगे जिसमें इस मंत्रका जाप किया जायगा पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा यावत् पतति भूतले। उत्थाय च पुनः पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ॥ चेष्टाकी आवश्यकता नहीं, कर्मकी आवश्यकता नहीं, गढ़ने-जोड़नेकी आवश्यकता नहीं, केवल भावोछ्वास ही साधना है, मत्तता ही मुक्ति है। हमने बहुतोंको आह्वान किया, बहुतोंको इकट्ठा किया, जनताका विस्तार देखकर हम आनन्दित हुए; पर ऐसे कार्यक्षेत्रमें हमने उन्हें नहीं पहुंचाया जिसमें उद्बोधित शक्तिको सब लोग सार्थक कर सकते। उत्साह मात्र देने लगे, काम नहीं दिया। इससे बढ़कर मनुष्यके मनको अस्वस्थ करनेवाला काम दूसरा नहीं हो सकता। हम सोचते हैं कि उत्साह मनुष्यको निर्भीक बनाता है और निर्भीक हो जानेपर वह कर्ममार्गकी बाधा-विपत्तियोंसे नहीं डरता। परन्तु बाधाओंके सिरपर पैर रखकर आगे बढ़नेकी उत्तेजना ही तो कर्मसाधनका सर्व प्रधान अङ्ग नहीं है-स्थिरबुद्धिसे युक्त होकर विचार करनेकी शक्ति, संयत होकर निर्माण करनेकी शक्ति, उससे बड़ी है । यही कारण है कि मतवाला मनुष्य हत्या कर सकता है पर युद्ध नहीं कर सकता । यह बात नहीं है कि युद्धमें मत्तताकी कुछ भी मात्रा न रहती हो, पर अप्रमत्तता ही प्रभु होकर उसका सञ्चालन करती है। इसी स्थिरबुद्धि दूरदर्शी कर्मोत्साही प्रभुको ही वर्तमान उत्तेजनाकालमें देश ढूँढ़ रहा है--पुकार रहा है, पर अभागे देशके दुर्भाग्यके कारण उसका पता नहीं मिलता। हम दौड़कर आनेवाले लोग केवल शराबके बरतनमें शराव ही भरते हैं, इंजिनमें

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