Book Title: Raja aur Praja
Author(s): Babuchand Ramchandra Varma
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 85
________________ राजा और प्रजा। १६० उसका अप्रयोजनीय व्यापार हमारे स्नायुमण्डलको विकृत करके कर्मसभाको नृत्यसभामें बदल देता है । नींदसे जागने और अपनी सचल शक्तिकी वास्तविकताका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये उत्तेजनाके जिस एक आघातकी आवश्यकता होती है उसीका हमें प्रयोजन था। हमने विश्वास कर लिया था कि अँगरेज जाति हमारे जन्मान्तरके पुण्य और जन्मकालके शुभग्रहकी भाँति हमारे पैवन्द लगे टुकड़ोंमें हमारे समस्त मंगलोंको बाँध देगी। विधातानिर्दिष्ट इस अयत्नप्राप्त सौभाग्यकी हम कभी बन्दना करते और कभी उससे कलह करके कालयापन करते थे। इस प्रकार जब मध्याह्नकालमें सारा संसार जीवनयुद्धमें निरत होता था तब हमारी सुखनिद्रा और भी गाढ़ी होती थी। __ ऐसे ही समय किसी अज्ञात दिशासे एक ठोकर लगी। नींद भी टूट गई और फिर आँखें मूंदकर स्वप्न देखनेकी इच्छा भी नहीं रह गई: पर आश्चर्य है कि हमारी उस स्वप्नावस्थासे जागरणका एक विषयमें मेल रह ही गया। तब हम निश्चिन्त हो गये थे-हमें भरोसा हो गया था कि प्रयत्न न करके भी हम प्रयत्नका फल प्राप्त कर लेंगे। अब सोचते हैं कि फल प्राप्तिके लिये प्रयत्नकी जितनी मात्रा आवश्यक है उसको बहुत कुछ घटाकर भी हम वही फल प्राप्त कर सकते हैं। जब स्वप्न देखते थे तब भी असम्भवका आलिंगन किए हुए थे; जब जागे तब भी असम्भवको अपने बाहुजालके बाहर न कर सके। शक्तिकी उत्तेजना हममें बहुत अधिक हो जानेके कारण अत्यावश्यक विलम्ब हमें अनावश्यक जान पड़ने लगा । बाहर वही पुराना दैन्य रह गया है, अन्दर

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