Book Title: Raja aur Praja
Author(s): Babuchand Ramchandra Varma
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 71
________________ १२७ राजभक्ति। है कि विश्वसंसारमें भिन्न भिन्न निमित्तोंमें और भिन्न भिन्न आकारोंमें भक्तिविनम्र भारतवर्पकी पूजा आयोजित हुई है। हमारे विश्वासमें संसार सदा ही देवशक्ति द्वारा जीवित है । यह कहना सर्वथा असत्य है कि हमारी दीनता ही हमसे प्रबलताकी पूजा कराती है। सभी जानते हैं कि भारतवर्ष गायकी भी पूजा करता है । गायका पशु होना उसे मालूम न हो, यह बात नहीं है । मनुष्य प्रबल है, गाय दुर्बल । परन्तु भारतवर्ष के मनुष्य गायसे अनेक प्रकारके लाभ उठाते हैं। एक उद्भत समाज कह सकता है कि मनुष्य अपने वाहुबलकी बदौलत पशुसे लाभ उठाता है। परन्तु भारतवर्षमें ऐसी अविनीतता नहीं है। सम्पूर्ण मंगलोंके मूलमें ईश्वरानुग्रहको प्रणाम करके और सम्पूर्ण प्राणियोंके साथ आत्मीय सम्बन्ध स्थापित करके ही वह सुखी होता है। कारीगर अपने औजारको प्रणाम करता है, योद्धा अपनी तलवारको प्रणाम करता है, गवैया अपनी वीणाको प्रणाम करता है। वे यंत्रको यंत्र न जानकर कुछ और जानते हों, यह बात नहीं है। परन्तु वे यह भी जानते हैं कि यंत्र निमित्त मात्र है-वह हमें जो आनन्द देता है, हमारा जो उपकार करता है वह लोहे या काठका दान नहीं है; क्यों कि आत्माको किसी आत्मशून्य पदार्थमें कोई पा ही नहीं सकता। इसलिये वे अपनी पूजा, अपनी कृतज्ञता इन यंत्रोहीके द्वारा विश्वयंत्रके यंत्रीकी सेवामें अर्पित करते हैं। __ भारतवर्ष यदि राजशासनके कार्यको पुरुष रूपसे नहीं, बल्कि निर्जीव यंत्र रूपसे अनुभव करता रहे तो उसके लिये इससे बढ़कर कष्टकी बात दूसरी नहीं हो सकती । जड़ पदार्थों के अन्दर भी जिसको आत्माके सम्पर्कका पता लगाकर ही सन्तोष होता है वह राज्यतंत्र

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