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प्रक्षाध्यान सिद्धान्त और प्रयोग
४. पेराथाइरॉइड
पेराथाइरॉइड की छोटी-छोटी अण्डाकार ग्रन्थियां होती हैं। ये थाइरॉइड ग्रन्थि के दोनों पिण्डों में ऊपर-नीचे जटित सी होती है। इन ग्रन्थियों के हार्मोन 'पेराथोर्मोन कहलाते हैं। इसके प्रभाव से शरीर के केल्शियम की
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मात्रा निश्चित होती है।
५. थाइमस ग्रन्थि
यह ग्रंथि दोनों फेफड़ों के बीच में थोड़ी-सी ऊपर की ओर होती है। शैशवावस्था के प्रारंभिक दो-तीन वर्षों में इस ग्रन्थि की वृद्धि बहुत तेज गति से होती है, फिर उसके विकास में मन्दता आ जाती है तथा ३० वर्ष की आयु के पश्चात् वह धीरे-धीरे सिकुड़ जाती है, फिर भी स्राव पैदा करने वाली उसकी कुछ कोशिकाएं आजीवन बनी रहती हैं।
यह शैशवावस्था में बच्चे के शारीरिक विकास का नियमन करती है तथा १४ वर्ष की आयु तक इस विकास का अधिकतर क्रम समाप्त हो जाता है। इस आयु तक उसका कार्य है- दूसरी ग्रन्थियों को विशेषतया गोनाड्स (काम-ग्रन्थियों) को सक्रिय न होने देना। जिसके कारण यौवनावस्था के उन्मादों का निरोध होता रहता है। यह ग्रन्थि मस्तिष्क के सम्यग् विकास में भी सहायक होती है तथा लसिका कोशिकाओं के विकास में अपने स्रावों द्वारा सहयोग कर रोग निरोधक कार्यवाही में योगदान देती है।
६. एड्रीनल ग्रन्थियां
एड्रीनल ग्रन्थियां जोड़े के रूप में होती हैं। उनका आकार त्रिकोणाकार टोपी जैसा होता है। ये गुर्दे के ऊपर के भाग पर स्थित होती हैं। प्रत्येक एड्रीनल के दो खण्ड होते हैं- कार्टेक्स या बाह्य हिस्सा तथा मेडूला या भीतरी हिस्सा ।
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कार्टेक्स : एड्रीनल ग्रन्थियों का अधिकांश द्रव्य कार्टेक्स में होता है। इन ग्रन्थियों से गुजरने वाले रक्त की मात्रा इनके परिमाण के अनुपात बहुत अधिक है। तीन दर्जन से भी अधिक प्रकार के स्रावों को पैदा करने वाली ये ग्रन्थियां अन्य सभी ग्रन्थियों की अपेक्षा संभवतः सबसे अधिक संख्या में स्रावों का उत्पादन करती हैं। इनमें से अनेक स्राव जीवन के लिए अनिवार्य होते हैं । स्राव मस्तिष्क तथा प्रजनन अवयवों के स्वस्थ विकास को प्रेरित करने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। इनसे मानसिक
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