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लेश्या-ध्यान
१२५ १. सुनहला रंग
---आध्यात्मिकता २. हलका नीला या नील-लोहित
-रोग हरने की शक्ति ३. गुलाबी
-प्रेम, स्नेह ४. लाल
-तृष्णा, क्रोध ५. हरा
-बौद्धिकता ६. भूरे या गहरे मटियाले रंग
-रोगग्रस्तता ७. मुाया या निस्तेज
—मृत्यु की सन्निकटता आध्यात्मिक दृष्टिकोण लेश्या एक प्रकार का पौद्गलिक पर्यावरण है। इसकी खोज जीव और पुद्गल के स्कंधों का अध्ययन करते समय हुई। जीव से पुद्गल (Matter) और पुद्गल से जीव प्रभावित होते हैं। जीव को प्रभावित करने वाले पुद्गलों के अनेग वर्ग हैं। उनमें से एक वर्ग का नाम लेश्या है। लेश्या शब्द का अर्थ आणविक आत्मा, कांति, प्रभा या छाया है। छाया-पुद्गलों से प्रभावित होने वाले जीव परिणामों को भी लेश्या कहा गया है। प्राचीन साहित्य में शरीर के वर्ण, आणविक आभा और उससे प्रभावित होने वाले विचार-इन तीनों अर्थों में लेश्या का उल्लेख मिलता है। शरीर के वर्ण और आणविक आभा को 'द्रव्य लेश्या' और विचार को 'भाव लेश्या' कहा गया है।
आणविक आभा कर्म-लेश्या का ही नामांतर है। आठ कर्मों में छठा कर्म नाम है। उसका सम्बन्ध शरीर रचना सम्बन्धी पुद्गलों से है। उसकी एक पद्धति 'शरीर-नामकर्म' है। 'शरीर-नामकर्म' के पुद्गलों का ही एक वर्ग कर्म-लेश्या कहलाता है।
लेश्या की अनेक परिभाषाएं मिलती हैं, जैसे
१. योग-परिणाम २. कषायोदय रंजित योग-प्रवृत्ति ३. कर्म-निष्पन्न ४. कार्मण शरीर की भांति कार्मण वर्गणा-निष्पन्न कर्म-द्रव्य ।
इन शास्त्रीय परिभाषाओं के अनुसार लेश्या से जीव और कर्म पुद्गलों का सम्बन्ध होता है, कर्म की स्थिति निष्पन्न होती है और कर्म का उदय होता है। इस प्रकार आत्मा की शुद्धि और अशुद्धि के साथ लेश्या जुड़ी हुई है।
प्रभाववाद की दृष्टि से दोनों परम्पराएं प्राप्त होती हैं१. पौद्गलिक लेश्या का मानसिक विचारों पर प्रभाव। २. मानसिक विचारों का लेश्या पर प्रभाव।
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