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प्रेक्षाध्यान सिद्धान्त और प्रयोग
अव्यथ चेतना
जिस दुनिया में निर्विकल्प चेतना का महत्त्व है, सचमुच वह कोई दसरे प्रकार की दुनिया है। यह काल्पनिक बात नहीं है। यह यथार्थ है। जब यह चेतना जागती है, तब सारी असमाधियां दूर हो जाती हैं। सबसे पहला सुफल होता है-अव्यथ चेतना की जागृति। निर्विकल्प चेतना में जीने वाला व्यक्ति निव्यर्थ जीवन जीता है। उसकी चेतना में व्यथा नहीं होती। उसके सामने कितना ही प्रतिकूल वातावरण उपस्थित हो, भयंकर परिस्थितियां और समस्याएं हों, वह कभी व्यथित नहीं होता। जैसे सोये हुए व्यक्ति के सामने घटने वाली घटना का उस पर कोई असर नहीं होता, वैसे ही निर्विकल्प चेतना में जीने वाले व्यक्ति पर घटनाओं का कोई असर नहीं होता। कोई भी घटना उसे क्षुब्ध नहीं कर पाती। वह घटना को जान लेता है, भोगता नहीं। वह केवल ज्ञाता रहता है, भोक्ता नहीं। अमूढ़ चेतना
दूसरा सुफल यह होता है कि चेतना असम्मोह की स्थिति में चली जाती है। उसमें फिर मूढ़ता पैदा नहीं होती। इस दुनिया में मूढ़ता पैदा करने वाले अनेक तत्त्व हैं। व्यक्ति एक शब्द सुनता है, एक रूप देखता है और सम्मोहित हो जाता है। उसकी चेतना संमूढ़ बन जाती है। एक विचार सामने आता है और वह संमूढ़ बन जाता है। पग-पग पर संमूढ़ता के कारण बिखरे पड़े हैं। वह इनमें फंस जाता है। सारे सम्मोहन विकल्प-चेतना में जागते रहते हैं। विकल्प उभरता है, साथ-साथ मूढ़ता उभरती है। निर्विकल्प चेतना के उपलब्ध होने पर चित्त मूढ़ नहीं बनता, सम्मोहन समाप्त हो जाते हैं।
विवेक चेतना
तीसरा सुफल यह होता है कि उससे विवेक-चेतना जाग जाती है। विवेक चेतना के जागने पर साधक में पार्थक्य-शक्ति विकसित हो जाती है। आत्मा और पुद्गल का स्पष्ट भेद उसे साक्षात् हो जाता है। व्युत्सर्ग-चेतना ___चौथी सुफल यह होता है कि जब विवेक-चेतना पुष्ट होती है तब व्युत्सर्ग की क्षमता बढ़ती है। त्याग और विसर्जन की शक्ति का विकास होता है। व्युत्सर्ग चेतना से त्याग की शक्ति प्रबल होती है।
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