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अनुप्रेक्षा
१५३ हमारा विश्वास है कि मंत्र की भी बहुत उपयोगिता है, उसे नकारा नहीं जा सकता, अस्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि हम सीधे वीतराग तो बन नहीं सकते। सीधे छलांग बाली बात कम घटित होती है। कोई व्यक्ति ऐसा हो सकता है कि सीधी छलांग लगा सकता है। कोई-कोई ऐसा हो सकता है कि छत पर से सीधे नीचे छलांग लगा सकता है, पर हर कोई लगाने लग जाये, तो फिर सीढ़ियों की जरूरत क्या है ? फिर सीढ़ियां लगानी निरर्थक हैं। पर सब छलांगें लगाने लग जाएंगे, तो शायद हॉस्पीटल में स्थान भी खाली नहीं मिलेगा। बड़ी मुसीबत पैदा हो जाएगी। छलांग की बात सार्वजनिक बात नहीं हो सकती। कदाचित् हो सकती है, अपवाद स्वरूप हो सकती है। सीधे वीतरागता की भूमिका में चले जाने की बात एक छलांग की बात है। हमें सीढ़ियों के सहारे चलना पड़ेगा। आदमी सीढ़ी के सहारे चढ़ेगा, ऊपर पहुंचेगा। सीढ़ियों में दोनों बातें होती है। एक ही सीढ़ी बनी हुई है। उससे ऊपर भी चढ़ा जा सकता है, नीचे में आया जा सकता है। ऐसा नहीं होता कि ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां अलग बनती हैं और नीचे आने के लिए सीढ़ियां अलग बनती हैं। उसी सीढ़ी से ऊपर चढ़ा जा सकता है और उसी सीढ़ी से नीचे आया जा सकता है। हमारी एक ही भावधारा है। उसी भावधारा से ऊपर चढ़ा जा सकता है और उसी भावधारा से नीचे उतरा जा सकता है। हमारी भावधारा जब सत् के साथ जुड़ती है, तब हम ऊपर चढ़ सकते हैं, हमारा आरोहरण हो सकता है। ज्यों-ही भावधारा असत् के साथ जुड़ती है तब अवरोहण शुरू हो जाता है, आदमी नीचे उतर आता है। जप का विकास, मन्त्र का विकास, इसी भावना के आधार पर हुआ था कि एक ऐसा आलम्बन बना रहे जिससे बुरे भावों को आने का अवसर कम से कम मिले। भ्रातियों का विघटन
मिथ्या कल्पनाओं को तोड़ने के लिए प्रेक्षाध्यान पद्धति में अनुप्रेक्षा का अभ्यास किया जाता है। दो शब्द हैं : एक है प्रेक्षा और दूसरा है अनुप्रेक्षा। मैं बहुत दिनों से सोचता था कि प्रेक्षा के पीछे 'अनु' का प्रयोग क्यों किया गया है ? इसे सोचते-सोचते जो एक बात सूझी वह यह है कि जो सचाई है, उसे देखना, उसका विमर्श करना अनुप्रेक्षा है। सचाई को देखो। उसे अपनी धारणा से मत देखो। मछली ने धारणा बना ली कि आदमी वह होता है जिसका सिर नीचे और पैर ऊपर होते हैं इसी धारणा से वह आदमी को देखते थी। यह अनुप्रेक्षा नहीं है। अपनी धारणा से मत
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