Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 9
________________ प्रवचनसार अनुशीलन इनमें जो परिणमन शुद्ध है, पूर्ण है; वह स्वभावपर्याय कहा जाता है और जो परिणमन अपूर्ण है, अशुद्ध है; वह विभावपर्याय है। ___ यद्यपि सभी द्रव्यपर्यायों और सभी गुणपर्यायों में एकत्वबुद्धि, ममत्वबुद्धि, कर्तृत्वबुद्धि एवं भोक्तृत्वबुद्धि मिथ्यात्व है; तथापि यहाँ विशेष वजन मनुष्यादिपर्यायरूप असमानजातीयद्रव्यपर्यायों में एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्वबुद्धि पर ही दिया जा रहा है। इस बात का विशेष स्पष्टीकरण आमामी माथा और उसकी टीका में किया जायेगो,मले: बिहो इसके बिसवे चचो कामा अर्मोष्ट मलाही करने में किसी पर की अपेक्षा रंचमात्र भी नहीं है। उसमें नित्यताअनित्यता, एकता-अनेकता आदि सब धर्म एक साथ विद्यमान रहते हैं। द्रव्यदृष्टि से वस्तु जिस समय नित्य है, पर्याय दृष्टि से उसी समय अनित्य भी है, वाणी से जब नित्यता का कथन किया जायेगा, तब अनित्यता का कथन सम्भव नहीं है। अतः जब हम वस्तु की नित्यता का प्रतिपादन करेंगे, तब श्रोता यह समझ सकता है कि वस्तु नित्य ही है, अनित्य नहीं। अत: हम किसी अपेक्षा नित्य भी हैं, ऐसा कहते हैं। ऐसा कहने से उसके ज्ञान में यह बात सहज आ जावेगी कि किसी अपेक्षा अनित्य भी है। भले ही वाणी के असामर्थ्य के कारण वह बात कही नहीं जा रही है। ___ अत: वाणी में स्याद्-पद का प्रयोग आवश्यक है, स्याद्-पद अविवक्षित धर्मों को गौण करता है, पर अभाव नहीं। उसके प्रयोग बिना अभाव का भ्रम उत्पन्न हो सकता है। - तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ-१४४ हाहा प्रवचनसार गाथा-९४ विगत गाथा के चतुर्थ पाद में यह कहा गया था कि पर्यायमूढजीव परसमय हैं। अतः यहाँ यह प्रश्न सहज ही उपस्थित होता है कि यदि पर्यायमूढ़ जीव परसमय हैं तो स्वसमय कौन हैं? उक्त प्रश्न को ध्यान में रखकर आगामी गाथा ९४ में स्वसमय और परसमय के स्वरूप को विशेष स्पष्ट किया जा रहा है। गाथा मूलतः इस प्रकार हैजो पजएसु णिरदा जीवा परसमइग त्ति णिहिट्ठा । आदसहावम्हि ठिदा ते सगसमया मुणेदव्वा ।।१४।। (हरिगीत) पर्याय में ही लीन जिय परसमय आत्मस्वभाव में । थित जीव ही हैं स्वसमय-यह कहा जिनवरदेव ने ।।१४।। जो जीव पर्यायों में लीन हैं; उन्हें परसमय कहा गया है और जो जीव आत्मस्वभाव में स्थित हैं, वे स्वसमय जानने । इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस प्रकार स्पष्ट करते हैं - "जो सकल अविद्याओं की मूल जीव-पुद्गलात्मक असमानजातीय द्रव्यपर्यायों का आश्रय करते हुए यथोक्त आत्मस्वभाव की संभावना में नपुंसक होने से असमानजातीय द्रव्यपर्याय में ही बल धारण करते हैं; 'मैं मनुष्य हूँ, मेरी यह नरदेह हैं' - इसप्रकार के अहंकार-ममकार से ठगे गये हैं; निरर्गल एकान्त दृष्टिवाले वे लोग अविचलित चेतनाविलासमात्र आत्मव्यवहार से च्युत होकर समस्त क्रियाकलाप को छाती से लगानेरूप मनुष्यव्यवहार का आश्रय करके रागी-द्वेषी होते हुए परद्रव्यरूप कर्म के साथ युक्त हो जाने से परसमय होते हैं, परसमयरूप परिणमित होते हैं।

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