Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2 Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 8
________________ प्रवचनसार अनुशीलन सभी पदार्थ अनादि-अनंत होने से स्वत:सिद्ध हैं; वे किसी से रचित नहीं हैं। सदा ही अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप हैं; किन्तु परपदार्थों के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप नहीं हैं।' ज्ञेय के तीन प्रकार होते हैं, द्रव्य, गुण और पर्याय । अनन्त गुणों का अभेद पिण्ड वह द्रव्य है। द्रव्य में उसके साथ विस्तार विशेषरूप गुण हैं और समय-समय क्रमश: उत्पाद-व्ययरूप होनेवाली अवस्थाएँवर्तमानदशा पर्यायें हैं; ये पदार्थों में स्वयं अपने द्रव्य और गुण से ही होती हैं; फिर भी जो ऐसा मानता है कि पर्याय पर से होती है तो वह जीव अखण्ड स्व-पर ज्ञेयों को नहीं मानता और अंश मात्र में सम्पूर्ण द्रव्य को मानकर, देहादि संयोग में एकताबुद्धि द्वारा पर्यायमूढ़ होता है, इसी का नाम संसार है। असमानजातीय जड़ शरीर और जीव दोनों ही भिन्न-भिन्न वर्तते हैं; किन्तु ऐसा न मानकर वह पर के आधार से, एक-दूसरे का परिणमन मानता है। कर्म के कारण जीव को विकार होता है तथा जीव से कर्म की रचना होती है; इसप्रकार एक अंश की सत्ता को दूसरे से मानता है। अंशी से अंश अभेद है - ऐसा न मानकर पर के साथ एकत्व मानता है; इसलिए अंश में सम्पूर्ण माननेवाला, अनेक को एक माननेवाला और द्रव्य-गुण के आश्रय से अंश (पर्याय) होता है - ऐसा अभेद नहीं माननेवाला अथवा पर से पर्याय होती है, इसप्रकार भेद को ही माननेवाला होने से वह जीव पर्यायमूढ़ है। अज्ञानी की अंश व संयोग के ऊपर दृष्टि होने से वह यह माने बिना नहीं रहता कि मेरा वर्तमान, पर के आधीन है और परवस्तु की अवस्था मेरे आधीन है; मैं वाणी को रोक सकता हूँ, मैं फूल न तोडूं, मैं आहार को छोइँ, मैं शरीर को रोककर रख सकता हूँ इत्यादि मान्यतावाला मैं पर की १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-१३ २. वही, पृष्ठ-१७-१८ ३. वही, पृष्ठ-२०-२१ ४. वही, पृष्ठ-२४ गाथा-९३ अवस्था को कर सकता हूँ - ऐसी कर्तापने की श्रद्धा को पकड़कर बैठा है।" उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि द्रव्य-गुण-पर्यायमय सभी पदार्थ ज्ञेय हैं। सभी द्रव्य गुणात्मक हैं तथा द्रव्य और गुणों की पर्यायें होती हैं। इसप्रकार पर्यायें द्रव्यपर्यायें और गुणपर्यायों के भेद से दो प्रकार की होती हैं । द्रव्यपर्यायों को व्यंजनपर्याय और गुणपर्यायों को अर्थपर्याय भी कहते हैं। ध्यान देने की बात यह है कि मात्र एक द्रव्य के परिणमन को द्रव्यपर्याय नहीं कहते; अपितु अनेक द्रव्यों की मिली हुई अवस्थाओं को द्रव्यपर्याय कहते हैं। ये द्रव्यपर्यायें समानजातीयद्रव्यपर्याय और असमानजातीयद्रव्यपर्याय के भेद से दो प्रकार की होती हैं। समानजातीयद्रव्यपर्यायें पुद्गल में ही होती हैं; क्योंकि जीवादि द्रव्य तो आपस में मिलकर कभी किसी पर्यायरूप परिणमित होते ही नहीं हैं। न तो जीव धर्मादि अमूर्तिक द्रव्यों के साथ मिलकर परिणमित होता है और न दो जीव भी परस्पर बंधरूप होते हैं; एकमात्र पुद्गल परमाणु परस्पर मिलकर स्कन्धरूप परिणमित होते हैं। इसकारण समानजातीयद्रव्यपर्याय पुद्गलों में ही होती है। जीव और शरीररूप पुद्गलों के बंधरूप मनुष्यादि पर्यायें असमानजातीयद्रव्यपर्यायें हैं; क्योंकि जीव और पुद्गलों की जाति एक नहीं है। जीव चेतन जाति का है और पुद्गल जड़ जाति का है; परन्तु सभी पुद्गल एक ही जड़ जाति के हैं; अत: जड़ परमाणुओं का पिण्ड स्कन्ध समानजातीयद्रव्यपर्याय है। गुण पर्याय तो प्रत्येक द्रव्य के गुणों में होनेवाले प्रतिसमय के परिणमन को कहते हैं । जैसे जीव के ज्ञानगुण का मतिज्ञान, श्रुतज्ञानादिरूप परिणमन गुणपर्याय है। इसीप्रकार पुद्गल के रस गुण का खट्टा-मीठारूप परिणमन रसगुण की गुणपर्याये हैं।Page Navigation
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