Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 6
________________ प्रवचनसार गाथा - ९३ यह गाथा ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार और द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार की पहली गाथा है; जो सम्पूर्ण प्रवचनसार ग्रंथ की ९३वीं गाथा है और जिसमें पदार्थ द्रव्य-गुण-पर्यायरूप होता है - यह बताया गया है । गाथा मूलतः इसप्रकार है - अत्थो खलु दव्वमओ दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि । तेहिं पुणो पज्जाया पज्जयमूढा हि परसमया । । ९३ ।। ( हरिगीत ) गुणात्मक हैं द्रव्य एवं अर्थ हैं सब द्रव्यमय । गुण-द्रव्य से पर्यायें पर्ययमूढ़ ही हैं परसमय ।। ९३ ।। वस्तुतः पदार्थ द्रव्यमय है और द्रव्य गुणात्मक कहे गये हैं । द्रव्य और गुणों से पर्यायें होती हैं तथा पर्यायमूढ़ जीव ही परसमय होते हैं । इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस प्रकार स्पष्ट करते हैं - "इस लोक में जो भी ज्ञेयपदार्थ हैं; वे सभी विस्तारसामान्यसमुदायात्मक और आयतसामान्यसमुदायात्मक द्रव्य से रचित होने से द्रव्यमय है, द्रव्यरूप हैं। एकमात्र द्रव्य जिनका आश्रय है - ऐसे विस्तारविशेषस्वरूप गुणों से रचित होने से द्रव्य गुणात्मक हैं और आयतविशेषस्वरूप पर्यायें उपर्युक्त द्रव्यों और गुणों से रचित होने से द्रव्यात्मक भी हैं और गुणात्मक भी हैं। अनेक द्रव्यात्मक एकता की प्रतिपत्ति की कारणभूत द्रव्यपर्यायें हैं। वे द्रव्यपर्यायें दो प्रकार की होती हैं। समानजातीयद्रव्यपर्याय और असमानजातीयद्रव्यपर्याय । अनेक पुद्गलात्मक द्विअणुक, त्रिअणुक आदि स्कन्ध समानजातीय गाथा - ९३ द्रव्यपर्यायें हैं और जीव- पुद्गलात्मक देव, मनुष्य आदि पर्यायें असमानजातीयद्रव्यपर्यायें हैं। गुणों द्वारा आयत की अनेकता की प्रतिपत्ति की कारणभूत गुणपर्यायें हैं। वे भी दो प्रकार की होती हैं स्वभावगुणपर्याय और विभावगुणपर्याय । सभी द्रव्यों के अपने-अपने अगुरुलघुत्वगुण द्वारा प्रतिसमय प्रगट होनेवाली षट्स्थानपतित हानि-वृद्धिरूप अनेकत्व की अनुभूति स्वभावपर्यायें हैं और रूपादि अथवा ज्ञानादि के स्व-पर ( उपादाननिमित्त) के कारण प्रवर्तमान पूर्वोत्तर अवस्था में होनेवाले तारतम्य के कारण देखने में आनेवाले स्वभावविशेषरूप अनेकत्व की आपत्ति विभावपर्यायें हैं। अब इसी बात को दृष्टान्त से दृढ करते हैं - जिसप्रकार सभी पट (वस्त्र) स्थिर विस्तारसामान्यसमुदाय से और दौड़ते हुए आयतसामान्यसमुदाय से रचित होते हुए पट (वस्त्र) से तन्मय ही हैं, पटमय ही हैं; उसीप्रकार सभी द्रव्य स्थिर विस्तारसामान्यसमुदाय से और दौड़ते हुए आयतसामान्य समुदाय से रचित होते हुए द्रव्यमय ही हैं। जिसप्रकार पट स्थिर विस्तारसामान्यसमुदाय या दौड़ते हुए आयतसामान्यसमुदाय गुणों से रचित होता हुआ गुणों से पृथक् अप्राप्त होने से गुणात्मक ही हैं; उसीप्रकार स्थिर विस्तारसामान्यसमुदाय या दौड़ते हुए आयतसामान्यसमुदायरूप द्रव्य गुणों से रचित होता हुआ गुणों से पृथक् अप्राप्त होने से गुणात्मक ही हैं। जिसप्रकार अनेकपटात्मक (अनेक वस्त्रों से निर्मित) द्विपटिक, त्रिपटिक आदि समानजातीयद्रव्यपर्यायें हैं; उसीप्रकार अनेक पुद्गलात्मक द्वि-अणुक, त्रि- अणुक आदि समानजातीयद्रव्यपर्यायें हैं। जिसप्रकार अनेक रेशमी और सूती पटों के बने हुए द्विपटिक, त्रिपटिक आदि असमानजातीयद्रव्यपर्यायें हैं; उसीप्रकार अनेक जीव- पुद्गलात्मक देव, मनुष्य आदि असमानजातीयद्रव्यपर्यायें हैं।

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